शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

संविधान की प्रस्तावना और उसमें निहित शब्दों के अर्थ।

प्रत्येक संविधान का अपना दर्शन होता है। हमारे संविधान के पीछे जो दर्शन है उसके लिए हमे पंडित जवाहर लाल नेहरू के उस ऐतिहासिक उद्देश्य - संकल्प की ओर दृष्टिपात करना होगा जो संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को अंगीकार किया था, और जिससे आगे सभी चरणों में संविधान को रूप देने में प्रेरणा मिली है।

42 वें संविधान संशोधन अधिनियम , 1976 द्वारा इसमें समाजवादी , पंथनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों को सम्मिलित किया गया । 

यथा संशोधित उद्देश्य - संकल्प (प्रस्तावना) इस प्रकार हैं :-

                        प्रस्तावना
" हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व संपन्न, समाजवादी पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता
प्रतिष्ठा और अवसर की समता 
प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में 
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली 
बंधुता बढ़ाने के लिये 
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई . (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।" 

 
पण्डित नेहरू के शब्दों में उपर्युक्त संकल्प "संकल्प से कुछ अधिक है यह एक घोषणा है, एक दृढ़ निश्चय है, एक प्रतिज्ञा है, एक वचन है और हम सभी के लिए एक समर्पण है। उक्त संकल्प मे जिन आदर्शों को रखा गया है वे संविधान की उद्देश्यिका मे दिखाई पड़ते है। 1976 मे यथा संशोधित इस उद्देश्यिका मे संविधान के ध्येय और उसके उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन है।"
उद्देश्यिका (प्रस्तावना) से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं। 
1. प्रस्तावना यह बताती है कि संविधान के प्राधिकार का स्त्रोत क्या है? 
2. प्रस्तावना यह भी बताती है कि संविधान किन उद्देश्यों को संवर्धित या प्राप्त करना चाहता है। 

 प्रस्तावना में उल्लेखित मुख्य शब्दों के अर्थ : 
हम भारत के लोग 
इसका तात्पर्य यह है कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है तथा भारत के लोग ही सर्वोच्च संप्रभु है , अतः भारतीय जनता को जो अधिकार मिले हैं वही संविधान का आधार है अर्थात् दूसरे शब्दों में भारतीय संविधान भारतीय जनता को समर्पित है।  

संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न 
इस शब्द का आशय है कि , भारत ना तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और ना ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है । इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने आंतरिक और बाहरी मामलों का निस्तारण करने के लिए स्वतंत्र हैं । 
भारतीय संविधान भारतीयों (संविधान निर्मात्री सभा) द्वारा बनाया गया है, न कि ब्रिटिश संसद की देन है। इस बात मे यह पूर्ववर्ती भारतीय शासन अधिनियम से भिन्न है। इसे भारत के लोंगो ने एक प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा मे समावेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अधिकथित किया था। यह सभा अपने देश के राजनैतिक भविष्य को अवधारित करने के लिए सक्षम थी। 
गोपालन बनाम मद्रास राज्य, (1950) एस. सी. आर. 88 (198)
बेरुबाड़ी मामला, ए. आई. आर. 1960 एस. सी. 845 (846)

समाजवादी 
समाजवादी शब्द का आशय यह है कि ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के मुख्य साधनों , पूँजी , जमीन , संपत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य है ।
42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा उद्देश्यिका (प्रस्तावना) me समाजवादी शब्द सम्मिलित करके यह सुनिश्चित किया गया था कि भारतीय राज्य-व्यवस्था का ध्येय समाजवाद है। समाजवाद के ऊंचे आदर्शों को अभिव्यक्त रूप से दर्शित करने के लिए इसे सम्मिलित किया गया। 
भारतीय संविधान द्वारा परिकल्पित समाजवाद, राज्य के समाजवाद का वह सामन्य ढांचा नहीं है। जिसमें धन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है और प्राइवेट सम्पत्तियों का उत्सादन हो जाता है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था - 
                                "हमने सदैव कहा है कि हमारा समाजवाद अपने ढंग का है। हम उन्हीं क्षेत्रों मे राष्ट्रीयकरण करेंगे जिनमे हम आवश्यकता समझते है केवल राष्ट्रीयकरण, यह हमारा समाजवाद नहीं है।" 
एक्सेलवियर बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1979 एस. सी. पैरा 24
नकारा बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1983 एस. सी. पैरा 33-34

पंथनिरपेक्ष  
पंथनिरपेक्ष राज्य जो सभी धर्मों की स्वतंत्रता प्रत्याभूत करता है। 
' पंथनिरपेक्ष राज्य ' शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेख नहीं किया गया था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि , संविधान के निर्माता ऐसे ही राज्य की स्थापना करने चाहते थे । इसलिए संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 ( धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार ) जोड़े गए । भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता की सभी अवधारणाएँ विद्यमान है अर्थात् हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है । 

लोकतांत्रिक 
शब्द का इस्तेमाल वृहद रूप से किया है , जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है। व्यस्क मताधिकार , समाजिक चुनाव , कानून की सर्वोच्चता , न्यायपालिका की स्वतंत्रता , भेदभाव का अभाव भारतीय राजव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं । 

गणतंत्र 
प्रस्तावना में गणराज्य ' शब्द का उपयोग इस विषय पर प्रकाश डालता है कि दो प्रकार की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं ' वंशागत लोकतंत्र ' तथा ' लोकतंत्रीय गणतंत्र ' में से भारतीय संविधान अंतर्गत लोकतंत्रीय गणतंत्र को अपनाया गया है। गणतंत्र में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिये चुनकर आता है । 

गणतंत्र के अर्थ में दो और बातें शामिल हैं। 
पहली यह कि राजनीतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के हाथ में होने के बजाय लोगों के हाथ में होती हैं । 
दूसरी यह कि किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति । इसलिये हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिये खुला होगा । 

स्वतंत्रता 
यहाँ स्वतंत्रता का तात्पर्य नागरिक स्वतंत्रता से है। स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है । यह व्यक्ति के विकास के लिये अवसर प्रदान करता है।

न्याय 
न्याय का भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेख है , जिसे तीन भिन्न रूपों में देखा जा सकता है सामाजिक न्याय , राजनीतिक न्याय व आर्थिक न्याय ।  
सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि मानव - मानव के बीच जाति , वर्ण के आधार पर भेदभाव न माना जाए और प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हो । 
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन संपदा का केवल कुछ ही हाथों में केंद्रीकृत ना हो जाए ।
राजनीतिक न्याय का अभिप्राय है कि राज्य के अंतर्गत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो , चाहे वह राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का अधिकार । 

समता 
भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की समता प्रदान करती है जिसका अभिप्राय है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने की उपबंध । 
बंधुत्व 
इसका शाब्दिक अर्थ है भाईचारे की भावना प्रस्तावना के अनुसार बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना होगा । पहला व्यक्ति का सम्मान और दूसरा देश की एकता और अखंडता । मौलिक कर्तव्य में भी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है ।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

हिन्दू विधि ( Hindu Law ) : भाग 2 दत्तक ग्रहण (Adoption)

                    दत्तक ग्रहण 

दत्तक ग्रहण की प्रथा हिंदू धर्म की प्राचीनता में सन्निहित है मनुष्य की पुत्र प्राप्ति की स्वाभाविक इच्छा वृद्धावस्था में सहायता आदि भावनाओं ने पुत्र प्राप्ति की आवश्यकता को तीव्र बना दिया था। पितरों को पिंडदान जल दान देने तथा धार्मिक संस्कार को पूरा करने के लिए एवं अपने नाम को कायम रखने के लिए एक व्यक्ति को पुत्र दत्तक ग्रहण में लेना चाहिए यदि वह पुत्र हीन हो ऐसी प्राचीन मान्यता रही है । अर्थात जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपना अपत्य दे देता है तो इस देने के कृत्य को या किसी अन्य की संतान को अपना बनाने के कृत्य को दत्तक कहते हैं । 

वैध दत्तक की आवश्यक शर्तें ( धारा 6 )
इस अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत एक वैध दत्तक की आवश्यकता का उल्लेख किया गया है । इस संबंध में अधिनियम ने महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं जो धारा 6 में इस प्रकार है कोई दत्तक तभी मान्य होगा जबकि दत्तक ग्रहिता व्यक्ति दत्तक ग्रहण करने की आवश्यकता , सामर्थ्य तथा साथ ही साथ अधिकार भी रखता हो , दत्तक देने वाला व्यक्ति ऐसा करने की सामर्थ्य रखता हो , दत्तक ग्रहण में लिया जाने वाला व्यक्ति दत्तक ग्रहण के योग्य हो , दत्तक ग्रहण इस अधिनियम की अन्य शर्तों के अनुकूल हुआ हो । 
कुमार शूरसेन बनाम बिहार राज्य एआईआर 2008 पटना 24 . इस बाद में वादी जो जन्म से मुस्लिम था वह बचपन से ही एक हिंदू द्वारा दत्तक ग्रहण कर लिया गया था अतः न्यायालय ने निर्धारित किया कि हिंदू दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम की धारा 6 के अनुसार एक हिंदू एक हिंदू का ही दत्तक ग्रहण कर सकता है न्यायालय ने दत्तक ग्रहण को अमान्य कर दिया । 
हिंदू पुरुष द्वारा दत्तक ग्रहण करने की सामर्थ्य ( धारा 7 ) 
धारा 7 के अनुसार कोई भी स्वस्थ चित व्यक्ति जो वयस्क है किसी भी पुत्र अथवा पुत्री को दत्तक ग्रहण में ले सकता है । परंतु उसकी पत्नी जीवित है तो जब तक की पत्नी ने पूर्ण तथा अंतिम रूप से संसार को त्याग ना दिया हो अथवा हिंदू न रह गई हो अथवा सक्षम सक्षम क्षेत्राधिकार वाले किसी न्यायालय द्वारा विकृत चित वाली घोषित ना कर दी गई हो तब तक वह अपनी पत्नी की सहमति के बिना दत्तक ग्रहण नहीं करेगा । यदि पति की एक से ज्यादा पत्नियां है तो सबकी सहमति लेना आवश्यक होगा । 
सबरजीत कौर बनाम गुरु मल कौर ए आई आर 2009 एनओसी 889 पंजाब एंड हरियाणा न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि दंपत्ति की कोई संतान ना हो तथा पति ने बिना पत्नी की सहमति से दत्तक लिया है तो वह दत्तक अमान्य हो जाएगा । 
भोलू राम बनाम रामलाल एआईआर 1999 मध्य प्रदेश 198 मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि यदि पत्नी अलग रह रही है अथवा घोर अनैतिक जीवन व्यतीत करती हुई कई अन्य चली गई है और वही रहने लगी है तो उससे पुत्र को दतक में दिए जाने के संबंध में उसकी सहमति की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती । ऐसी स्थिति में यदि उसकी सहमति नहीं ली गई है तो दत्तक ग्रहण अवैध हो जाएगा ।
स्त्रियों के दत्तक ग्रहण करने की सामर्थ्य धारा 8 इस अधिनियम के द्वारा स्त्रियों को भी दत्तक ग्रहण करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है जिसमें उन्हें अब मृत पति से प्राधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार का प्राधिकार पति से प्राप्त करना पूर्व विधि में आवश्यक था अधिनियम में एक अविवाहित स्त्री भी दत्तक ग्रहण कर सकती है। 
अधिनियम की धारा 8 में स्त्री द्वारा दत्तक ग्रहण करने के लिए निम्नलिखित बातों को आवश्यक बताया गया है 
1. वह स्वस्थ चित्त की हो , 
2. वह वयस्क हो 
3 . वह विवाहिता ना हो अथवा यदि वह विवाहित है तो उसने विवाह भंग कर दिया हो अथवा
4. उसका पति मर चुका हो अथवा   
5. वह पूर्ण तथा अंतिम रूप से संसार त्याग चुका हो अथवा 
6. उसका पति हिंदू नहीं रह गया हो अथवा 
7. उसका पति किसी सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा विकृत मस्तिष्क का घोषित किया जा चुका हो। 

अतः स्त्रियों का दत्तक ग्रहण संबंधी अधिकार सीमित है । यह अधिकार अविवाहित अवस्था में अथवा विधवा होने की दशा में अथवा कुछ शर्तों के साथ विवाहिता होने की स्थिति में प्रयोग किया जा सकता है । 
स्त्री का दत्तक ग्रहण उसके पति के लिए होता है या व्यक्तिगत होता है ? 
 जब दत्तक ग्रहण स्त्री द्वारा विवाहिता जीवन की स्थिति में किया जाता है तो वह सदैव पति के लिए होता है क्योंकि उस दशा में स्त्री द्वारा दत्तक ग्रहण तब किया जाता है जब पति धारा 8 के खंड स में दी गई किसी योग्यता से निरयोग्य हो चुका है । शून्य विवाह के अंतर्गत चूंकि विवाह प्रारंभ से शून्य होता है पत्नी को यह अधिकार है कि वह पति के प्राधिकार के बिना दत्तक ग्रहण कर सकती है । ऐसे विवाह में उसकी स्थिति एक अविवाहिता स्त्री जैसी होती है । यद्यपि विवाह शून्य होता फिर भी यदि उसके कोई पुत्र उस विवाह से उत्पन्न हो गया हो तो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 के अनुसार वह संतान वैध होगी और ऐसे संतान की उपस्थिति में वह संतानहीन नहीं समझी जाएगी अतः दत्तक ग्रहण भी नहीं कर सकती है। 
मालती राव चौधरी बनाम सुधींद्रनाथ मजूमदार ए आई आर 2007 कोलकाता न्यायालय ने निर्धारित किया कि अविवाहित पुरुष दत्तक ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र होता है लेकिन विवाहित पुरुष द्वारा दत्तक ग्रहण में पत्नी की सहमति अनिवार्य होती है । 
श्रीमती विजयलक्ष्मा बनाम बीटी शंकर एआईआर 2001 सुप्रीम कोर्ट 1424 न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि संतानहींन पति की दो पत्नियां हैं वहां दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र होकर भी दत्तक ग्रहण कर सकती हैं अतः वह एक दूसरे से सहमति लेना आवश्यक नहीं होता है । 

वे व्यक्ति जो दत्तक दे सकते हैं ( धारा 9 ) इस अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत उन व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है जो दत्तक ग्रहण में बच्चे को देने के लिए सक्षम होते हैं वे इस प्रकार हैं 
1. बच्चे के माता - पिता या संरक्षक के अतिरिक्त कोई व्यक्ति बालक को दत्तक ग्रहण में देने के लिए समर्थ नहीं है । 
2. इस अधिनियम में 2010 में संशोधन के पश्चात व्यवस्था की गई है कि पिता या माता को यदि वह जीवित है पुत्र या पुत्री का दतक में देने का समान अधिकार होगा परंतु ऐसे अधिकार का प्रयोग उनमें से किसी के द्वारा अन्य की सहमति के सिवाय नहीं कर सकते । जब तक उनमें से एक ने पूर्ण और अंतिम रूप से संसार का त्याग नहीं कर दिया हो अथवा हिंदू न रह गया हो अथवा सक्षम अधिकारता वाले किसी न्यायालय ने उसके बारे में यह घोषित कर दिया हो कि वह विकृतचित् का है ।
3. धारा 9 ( 4 ) के अनुसार जबकि माता पिता दोनों की मृत्यु हो चुकी है अथवा वह संसार त्याग चुके हो अथवा संतान का परित्याग कर चुके हो अथवा किसी सक्षम न्यायालय द्वारा उनके विषय में यह घोषित कर दिया गया है कि वे वितरित मस्तिष्क के हैं अथवा जहां संतान के माता - पिता का पता ना चलता हो तो बालक का संरक्षक चाहे वह इच्छा पत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक हो अथवा न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक को न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा लेकर बालक को दत्तक ग्रहण में दे सकेगा । 
4. धारा 9 ( 4 ) के अनुसार स्थिति को न्यायालय में विचार में लेगा की अपत्य की आयु और समझने की शक्ति कितनी है उसके बाद ही दत्तक देने की अनुमति देगा । 
धुवराज जैन बनाम सूरज बाई ए आई आर 1973 राजस्थान 7 न्यायालय ने निर्धारित किया कि एक सौतेली माता अपने सौतेले पुत्र या पुत्री को दत्तक ग्रहण में नहीं दे सकती क्योंकि उसे इस बात का सामर्थ्य नहीं प्राप्त है । केवल नैसर्गिक माता - पिता ही दत्तक ग्रहण में बच्चे को देने का अधिकार एवं सामर्थ्य रखते हैं । व्यक्ति जो दत्तक लिए जा सकते हैं , 

धारा ( 10 ) कोई व्यक्ति व्यक्ति दत्तक ग्रहण में लिए जाने योग्य नहीं होगा जब तक कि वह निम्नलिखित शर्तें पूरी नहीं कर देता है। वह हिंदू हो , - इसके पूर्व कभी भी वह दत्तक ग्रहण ना रहा हो , वह विवाहित अथवा विवाहिता ना हो जब तक इसके विपरीत कोई प्रथा अथवा रुठि पक्षकारों के बीच प्रचलित ना हो जिसके अनुसार विवाहिता को दत्तक ग्रहण में लिया जाता है 15 वर्ष की आयु पूरी करनी होगी लेकिन रुदि व प्रथा लागू नहीं होती है । 
बालकृष्ण भट्ट बनाम सदाशिव घरट ए आई आर 1971 न्यायालय ने निर्धारित किया कि प्रथाओं के प्रमाणित किए जाने पर ही धारा 10 ( 4 ) के प्रावधान लागू किया जाएगा और 15 वर्ष से अधिक आयु के बालक का दत्तक ग्रहण वैध माना जाएगा । 
वीरान माहेश्वरी बनाम गिरीश चंद्र 1986 इलाहाबाद 54 न्यायालय निर्धारित किया कि 15 वर्ष से अधिक का दत्तक होता है तो उसे प्रथाओं का प्रमाण देना पड़ेगा चाहे भले ही दूसरे पक्षकार ने उसकी वैधता को चुनौती ना दिया हो । भरण पोषण ( Maintenance ) हिंदू विधि के अनुसार परिवार का सदस्य पूर्वज की संपत्ति में या तो भागीदार होता है या संपत्ति की आय पोषण अधिकार है । 

हिंदू दत्तक तथा पोषण अधिनियम 1956 के अंतर्गत निम्नलिखित व्यक्ति भरण पोषण के अधिकारी बनाए गए हैं 
1. पत्नी 
2. विधवा पुत्रवधू 
3. बच्चे तथा वृद्ध माता - पिता पत्नी का भरण पोषण धारा 18 ) 

पत्नी को दो अधिकार दिए गए हैं भरण पोषण का अधिकार तथा पृथक निवास करने का अधिकार अधिनियम की धारा 18 ( 1 ) अनुसार पत्नी अधिनियम के पहले या बाद में विवाहित हो अपने जीवन काल में अपने पति से भरण पोषण प्राप्त करने की हकदार होगी । धारा 18 ( 2 ) के अनुसार पत्नी पृथक निवास करके भी भरण पोषण का दावा कर सकती है जब वह पृथक निवास करती है उसके निम्नलिखित आधार होने चाहिए 
1. यदि पति - पत्नी के अभित्याग का अपराधी है अर्थात व युक्तियुक्त कारण के बिना या बिना पत्नी की राय के या उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे त्यागता है या इच्छापूर्वक उसकी अवहेलना करता है । 
2 . यदि पति ने इस प्रकार की निर्दयता का व्यवहार किया है जिससे उसकी पत्नी के मस्तिष्क में या युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न हो जाए कि उसका पति के साथ रहना हानिकर या घातक है। 3 . यदि वह कोई दूसरी जीवित पत्नी रखता हो 4. यदि वह कोई उपपत्नी रखता है क्या उसके साथ अन्य स्थान पर रहता है । 
5 . यदि वह हिंदू न रह गया हो । 
6 कोई अन्य कारण हो जो उसके पृथक निवास को उचित ठहराता हो। 
इस अधिनियम की धारा 18 ( 3 ) के अनुसार यदि कोई पत्नी शील भ्रष्ट है या वह कोई धर्म बदलकर गैर हिंदू हो जाती है या बिना कारण से पति से अलग रहती है तो उस स्थिति में वह भरण - पोषण का दावा नहीं कर सकेगी । 

रॉबिन कुमार चंद्रा बनाम शिखा चंद्रा 2000 न्यायालय ने निर्धारित किया कि पत्नी को भरण - पोषण का अधिकार उसी समय उत्पन्न हो जाता है जब वह न्यायालय में कोई वाद प्रस्तुत करती है। 
नरेंद्र पाल कौर चावला बनाम मनजीत सिंह चावला एआईआर 2008 दिल्ली न्यायालय ने निर्धारित किया कि कोई व्यक्ति पहली पत्नी के रहते हुए किसी दूसरी स्त्री से विवाह यह छुपाकर करता है कि वह अविवाहित हैं वहां दूसरी पत्नी भरण पोषण की हकदार होगी । 

नरेंद्र अप्पा भटकर बनाम नीलम्मा ए आई आर 2013 न्यायालय ने निर्धारित किया कि सीआरपीसी की धारा 125 मे आपसी सुलह समझौता के आधार पर वाद का निस्तारण हो गया हो और पति पत्नी अलग रह रहे हो वहां पत्नी का अधिकार इस अधिनियम के अंतर्गत समाप्त नहीं हो जाता है । 
विधवा पुत्रवधू का भरण पोषण ( धारा 19 ) इस अधिनियम की धारा 19 के अनुसार हिंदू पत्नी इस अधिनियम के पूर्व या पश्चात विवाहित हो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने श्वसुर भरण - पोषण प्राप्त करने की हकदार होगी । श्वसुर का भरण पोषण करने का दायित्व व्यक्तिगत दायित्व नहीं है बल्कि वह कुटुंब की संपत्ति से भरण - पोषण करने के लिए उत्तरदाई है लेकिन जब वह विधवा पत्नी स्वयं की संपत्ति से अपना भरण पोषण प्राप्त कर सकती हैं या पति की संपत्ति से या पिता की संपत्ति से या माता की संपत्ति से या पुत्र या पुत्री की संपत्ति से अपना भरण - पोषण कर रही है तो उस स्थिति में वह श्वसुर से भरण - पोषण नहीं प्राप्त कर सकती है । 
निम्नलिखित आधार विधवा पुत्रवधू का भरण पोषण का अधिकार संपहत हो 
1. यदि वह पुनः विवाह कर लेती है , 
2. यदि वह गैर हिंदू हो जाती है , 
3. श्वसुर के पास भरण - पोषण के लिए कोई साधन नहीं है , 
4. विधवा पुत्रवधू ने सहदायिकी की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त कर लिया हो । 
कनईलाल प्रमाणिक बनाम श्रीमती पुष्पा रानी ए आई आर 1976 कोलकाता 172 निर्धारित हुआ की धारा 19 ( 2 ) केवल मिताक्षरा विधि पर लागू होती है दायभाग पर नहीं क्योंकि वहां संपत्ति पिता के रहते पुत्र नहीं प्राप्त कर सकता है । 
बलबीर कौर बनाम हरिंदर कौर ए आई आर 2003 पंजाब 174
न्यायालय ने निर्धारित किया की पुत्रवधू श्वसुर के स्वयं अर्जित संपति से भरण - पोषण पाने की हकदार हैं । 
संतान तथा वृद्ध माता - पिता का भरण पोषण ( धारा 20 ) इस अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत कोई हिंदू अपने जीवन काल में अपने धर्मज अधर्मज संतानों और वृद्ध माता पिता का भरण पोषण करने के लिए बाध्य है । भरण पोषण का हकदार बच्चा अवयस्क होना चाहिए इसके अंतर्गत पौत्र पौत्री सम्मिलित नहीं है यदि कोई पुत्री जो अविवाहित हो अपना भरण - पोषण करने में असमर्थ हो वहां वह व्यक्ति भरण पोषण के लिए उत्तरदाई होगा । नोट माता के अंतर्गत निसंतान सौतेली माता भी आती है । लक्ष्मी बनाम कृष्ण 1968 इस वाद में पिता अपनी दूसरी पत्नी के साथ रह रहा था और पुत्री अपनी माता के साथ वहां न्यायालय ने निर्धारित किया कि पुत्री भरण पोषण की हकदार है । भरण पोषण की धनराशि ( धारा 23 ) हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 23 ने पोषण की धनराशि निर्धारित करने के लिए न्यायालय को सर्वोपरि अधिकार दे रखा हैं । पोषण की धनराशि न्यायालय के अपने विवेक के आधार पर निश्चित करेगा तथा न्यायालय धनराशि निश्चित करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगा, 
1.पत्नी बच्चे या वृद्ध माता - पिता के भरण - पोषण की राशि निर्धारित करते समय
A. पक्षकारों की अवस्था तथा हैसियत 
B. दावेदार की युक्तियुक्त मांग 
C. यदि दावेदार अलग रह रहा हो तो क्या उसका वैसा करना न्यायोचित है । 
D. दावेदार की संपत्ति का मूल्य जिसके अंतर्गत उस संपत्ति से आय दावेदार की स्वयं की आय तथा किसी अन्य रूप से प्राप्त आय सम्मिलित हैं। E. दावेदारों की संख्या । 

2. किसी आश्रित के भरण - पोषण की धनराशि निर्धारित करने के समय न्यायालय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगा, 
A. मृतक का ऋण देने के बाद उसकी संपत्ति का मूल्य , 
B. आश्रित के विषय में मृतक द्वारा इच्छा पत्र में कहीं गई बात , 
C. दोनों के संबंध की दूरी , 
D. आश्रित की युक्ति युक्त आवश्यकता , 
E. मृतक का आश्रित से पूर्व संबंध , 
F. आश्रित की संपत्ति का मूल्य तथा उसकी आय उसका स्वयं का उपार्जन किसी अन्य प्रकार : से आय , 
G. इस अधिनियम के अंतर्गत आश्रित पोषण के हकदार की संख्या 
मगन भाई छोटू भाई बना मनीबेन ए आई आर 1985 गुजरात 18 न्यायालय ने निर्धारित किया कि मामले के तथ्यों के अनुसार पत्नी को पति की आय में एक तिहाई अथवा कुछ परिस्थितियों में आधा भाग दिया जाना चाहिए । यदि पति की आय अधिक है और उसको अपने को छोड़कर अन्य किसी का भरण - पोषण नहीं करना है उसकी संतान पत्नी के साथ रह रही हो तो उस स्थिति में पत्नी को पति की पूरी आय का आधा हिस्सा दे दिया जाना चाहिए । 

परिस्थितियों के अनुसार राशि में परिवर्तन ( धारा 25 ) यदि भरण पोषण की धनराशि में परिवर्तन करना न्याय संगत हो तो वहां परिवर्तन किया जा सकता है । 
मदनलाल बनाम श्रीमती सुमन ए आई आर 2002 पंजाब एंड हरियाणा 321 न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि पत्नी भरण पोषण की राशि ले रही हो वहां उसे कोई संतान उत्पन्न हो जाती तो राशि में पुनः बदलाव किया जाएगा और उसे प्रदान किया जाएगा । 
शिप्रा भट्टाचार्य बनाम डॉक्टर अमरेश भट्टाचार्य 2009
न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि पति की आय में वृद्धि होती है तो पत्नी भी बढ़ी हुई राशि लेने की हकदार होगी । 
बंशीधर मोहंती बनाम श्रीमती ज्योत्सना रानी मोहंती 2002 उड़ीसा भरण पोषण की धनराशि घटाने या बढ़ाने के लिए एक पृथक बाद लाना पड़ता है लेकिन जहां पत्नी ने अपने भरण पोषण पाने के लिए हिंदू भरण पोषण अधिनियम की धारा के अंतर्गत भरण पोषण प्राप्त किया है वहां ऐसी स्त्री अपने भरण - पोषण को बढ़ाने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत कोई वाद नहीं ला सकती है । 

भरण पोषण अधिकार पर संपत्ति के हस्तांतरण का प्रभाव- जहां आश्रित भरण - पोषण का दावा करता है और संपत्ति को अंतरित कर दी जाती है तो उस स्थिति में संपत्ति जिसको अंतरित की गई है उस संपत्ति से भरण - पोषण दिया जाएगा लेकिन यदि उसने संपत्ति खरीदी हो और वह उस समय नहीं जानता था कि उससे भरण - पोषण दिया जाना है तो उस स्थिति में वह भरण पोषण देने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। 

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

हिन्दू विधि (Hindu Law) :- भाग 1

हिन्दू कौन हैं (Who is Hindu) ? 
वस्तुतः हिन्दू (Hindu) शब्द किसी जाति या सम्प्रदाय का बोधक नहीं है और न ही यह शब्द किसी विशेष धर्म का वाचक है। हिन्दू कहे जाने वाले व्यक्तियों के आधार तथा रीति रिवाजों में इतना अधिक विरोध है कि हिंदू शब्द के साँस्कृतिक इकाई का बोधक होने की बात अत्यंत आश्चर्यजनक प्रतीत होती है । इस धर्म के अंतर्गत कोई एक ही पैगंबर नहीं हुआ , कोई एक ही देवी - देवता की उपासना नहीं बताई गई है , कोई एक ही मत एवं आस्था का उदय नहीं हुआ । जिससे यह कहा जा सके कि उसमे से किसी एक में विश्वास करने वाला व्यक्ति ही हिंदू है अर्थात् सिंधु घाटी सभ्यता में निवास करने वाले हर व्यक्ति हिंदू कहलाते थे। जबकि हिंदू अधिनियम पारित होने के उपरांत लिन्दू शब्द में व्यापक परिवर्तन हुए अर्थात हिंदू विधि निम्नलिखित व्यक्तियों पर लागू होगी जिसके अंतर्गत वीरशैव , लिंगायत , ब्रह्म समाज , प्रार्थना समाज , आर्य समाज के साथ साथ ऐसा व्यक्ति जो बौद्ध हो , जैन हो , सिक्ख हो उस पर भी हिन्दू विधि लागू होगी । भारत में मुसलमान , ईसाई , पारसी , यहूदी को छोड़कर अन्य कोई है और उसका धर्म निर्धारित नहीं हो पा रहा है तो उसपर हिन्दू विधि लागू होगी । लेकिन मुसलमान , ईसाई , पारसी , यहूदी भी धर्म परिवर्तन करके हिंदू बन सकते हैं। 

• हिन्दू विधि के स्रोत – ( sources of Hindu Law ) 
» हिन्दू विधि के मुख्यतः दो स्रोत है - 
1. प्राचीन स्रोत 
2. आधुनिक स्रोत प्राचीन स्रोत 

        प्राचीन स्रोत (Ancient Sources) 

 इसके अंतर्गत निम्नलिखित चार स्रोत आते हैं । 1. श्रुति 
2. स्मृति - मनुस्मृति , याज्ञवलक्य , अर्थशास्त्र , नारद स्मृति , बृहस्पति स्मृति इत्यादि । 
3. भाष्य एवं निबंध 
4. रूढ़ि और प्रथा 

श्रुति :- श्रुति का अर्थ है सुनना या जो सुना गया है। इसके विषय में यह मत प्रचलित है कि यह वाक्य ईश्वर द्वारा ऋषियो पर प्रकट किए गए थे जो मुख से जिस प्रकार निकले उसी रूप में अंकित है । यह श्रुतिया सर्वोपरि समझी जाती हैं। चार वेद- ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद इसी के अंतर्गत आते हैं । 

स्मृति:- स्मृति का शाब्दिक अर्थ है स्मरण रखा जाना । स्मृतियों में मानवीय प्रवृतियां पाई जाती है । कुछ विद्वानों का मत है कि स्मृलियां उन्हीं ऋषियों द्वारा संकलित की गई थी जिस पर वेद प्रकट हुए अतः उन्हें भी उसी प्रकार प्रमाणित माना जाता है जिस प्रकार हम श्रुतियों को मानते हैं । 

भाष्य तथा निबंध:- हिंदू विधि का विकास अनेक रूपों में विभिन्न स्रोतों द्वारा हुआ जिसके परिणाम स्वरूप स्मृतियों के विधि में अनेक मतभेद , अपूर्णताए तथा अस्पष्टताएं आ गई थी । भाष्यों के अतिरिक्त निबंधों की भी रचना की गई , निबंधों में दूसरी तरफ किसी प्रकरण विशेष पर अनेक स्मृतियों के पाठों को अवतरित करके उस संबंध विधि को स्पष्ट किया गया है । . 

रूढि और प्रथा:- व्यक्तिगत विधि में रूढि एवं प्रथाओं को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है जिससे विधि को निर्धारित करने में यह सहायक होती हैं । विधिक अर्थ में प्रथाओं का अभिप्राय उन नियमों से है जो एक समाज वर्ग अथवा परिवार विशेष में माने जाते हैं । 

     आधुनिक स्रोत (Modern Sources) 

 1) न्यायिक निर्णय (Judicial decision):- वे न्यायिक निर्णय जो हिंदू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किए जाते हैं विधि के स्रोत समझे जाते हैं । अब हिंदू विधि पर सभी महत्वपूर्ण बातें विधि रिपोर्ट में सुलभ है । सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं। लेकिन एक उच्च न्यायालय का निर्णय दूसरे उच्च न्यायालय पर बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखते है | ॥ 

2) विधायन ( अधिनियम ) :- विधि के स्रोत में अधिनियमो का महत्व वर्तमान काल में बहुत अधिक बढ़ गया है । वस्तुतः विधि का यह स्रोत आधुनिक युग के नवीन स्रोतों में आता है अब किसी भी देश में विधि निर्मित करने का अथवा परिवर्तन करने का अधिकार किसी व्यक्ति विशेष को व्यक्तिगत रूप से नहीं प्राप्त है ऐसा अधिकार प्रभु सत्ताधारी को ही प्राप्त है । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 , हिन्दू व्यस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम 1956 , हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 , इसके मुख्य उदाहरण है । 

• हिन्द विधि की शाखाएँ ( School of Hindu law )

हिंदू विधि की निम्नलिखित दो शाखाएं हैं 
1. मिताक्षरा शाखा 
2.दायभाग शाखा 

1. मिताक्षरा शाखा 
• मिताक्षरा की पाँच उपशाखाएँ निम्नलिखित है । 
1 ) बनारस शाखा:- पंजाब तथा मिथिला को छोड़कर यह शाखा समस्त उत्तरी भारत में व्याम है , जिसमें उड़ीसा भी सम्मिलित है मध्य भारत की भी स्थानीय विधि हिंदू विधि की बनारस शाखा से प्रशासित है । 

2 ) मिथिला शाखा:- यह शाखा सामान्यतः उत्तरी बिहार में प्रचलित है कुछ विषयों को छोड़कर इस शाखा के विधि मिताक्षरा के विधि है इस बात का समर्थन प्रिवी काउंसिल ने सुरेंद्र बनाम हरिप्रसाद के बाद में किया है । 

3) द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा :- समस्त माला में हिंदू विधि की मात्रामाशांच्या प्रचालित ही पहले यह शासक पक्ति , जाटिका तया आंदा . 

4) महाराष्ट्र अथवा बंबई शाखा :- यह शाखा समस्त मुंबई प्रदेश में प्रचलित है जिसमें गुजरात क्षेत्र के साथ - साथ वे प्रदेश में प्रचलित है जहां मराठी बोली जाती है । 

5 ) पंजाब शाखा:- यहां शाखा पूर्वी पंजाब वाले प्रदेश में प्रचलित है इस शाखाओं में प्रयाओं को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है । 

2.दायभाग शाखा

दायभाग हिंदू विधि की एक प्राचीनतम धारणा है जिसका प्रभाव बंगाल में तथा असम के कुल क्षेत्रों में प्रचलित है । 

• मिताक्षरा तथा दायभाग की विधियों में अन्तर  
दायभाग शाखा 
दायभाग शाखा मे पुत्र का पिता के संपत्ति में अधिकार पिता के मृत्यु के पश्चात बतान्न होता है । 
दाय पारलौकिक लाभ प्राप्त करने के सिद्धांत पर आधारित है । 
फैक्टम बैलेट का सिद्धांत दायभाग में पूर्ण रूप से माना गया है दायभाग समस्त संहिता का एक सार संग्रह है ।

मिताक्षरा शाखा 

मिताक्षरा शाखा के अंतर्गत संयुक्त संपत्ति में पुत्र का पिता के पैतृक संपत्ति में जन्म से ही अधिकार हो जाता है । दाय के संबंध में यह सिद्धांत रक्त पर आधारित है ।  

फैक्टम वैलेट का सिद्धांत मिताक्षरा विधि में सीमित रूप में माना गया है । इसमें निकट संबधी को उत्तराधिकार के मामले में अधिक महत्व दिया गया है । . 

                  विवाह (Marriage) 
विवाह की परिभाषा वर के द्वारा कन्या को स्त्री के रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति ही विवाह है । 

विवाह की 8 पद्धतियां ( विवाह अधिनियम 1955 के पूर्व ) प्रचलित थी, जिसके अंतर्गत चार मान्य पद्धतिया तथा चार अमान्य पद्धतिया है जो निम्नलिखित है । 

 मान्य विवाह पद्धतियां - 
 ब्रह्म विवाह 
 देव विवाह 
 आर्ष विवाह 
 प्रजापत्य विवाह 

अमान्य विवाह पद्धतियां- 
असुर विवाह 
गंधर्व विवाह  
राक्षस विवाह 
पैशाच विवाह 


विवाह एक संस्कार है या संविदा ?

स्मृति काल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है । विवाह जो पहले एक पवित्र बंधन था अब अधिनियम लागू हो जाने के अंतर्गत ऐसा नहीं रह गया है । कुछ विधि विशेषज्ञों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है । अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं बल्कि विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है ।
विवाह हिंदुओं के ऐसे महत्वपूर्ण संस्कारों में ऐसे है जो किसी के लिए भी वर्जित नहीं है, प्रथा सभी जातियों के लिए आवश्यक माना जाता था इस संस्कार के अनुसार स्त्री एवं पुरुष मे एक पुत्र उत्पन्न करने के लिए एकीकरण होता है । 

प्रत्येक हिंदू तीन ऋणों को लेकर उत्पन्न होता है , देवऋण , ऋषि ऋण और पितृ ऋण 

इसके साथ ही स्वर्ग की प्राप्ति के लिए , वंश की वृद्धि के लिए तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए विवाह अति आवश्यक है । 
जबकि विवाह संविदा होने का आधार निम्नलिखित है . . 
बहु विवाह  
विवाह विच्छेद 
अंतर जाति विवाह 
विवाह की शर्तें 
यौन विमारी 
जारता 
उम्र में परिवर्तन इत्यादि । 

भगवती शरण सिंह बनाम परमेश्वरी नंदर सिंह इस मामले में निर्धारित किया गया की हिंदू विवाहा संस्कार ही नहीं बल्कि एक संविदा 

पुरुषोत्तम दास बनाम पुरुषोत्तम दास -इस वाद में निर्धारित किया गया की हिन्दू धर्म में विवाह एक संविदा है और संविदा के फल स्वरुप उसकी संतानों का अस्तित्व है । 

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 .विवाह की शर्ते ( धारा 5) हिंदू विवाह के निम्नलिखित शते हैं 
• यदि कोई पुरुष है तो उसकी कोई जीवित पत्नी न हो और यदि कोई स्त्री है तो उसका कोई जीवित पति न हो । 
• दोनों पक्षकारों में विवाह करने के लिए आपस में सहमति का होना आवश्यक है । 
• विवाह करने के लिए लड़के की आयु न्यूनतम 21 साल और लड़की की आयु न्यूनतम 18 साल के होनी चाहिए । 
• प्रतिषेध नातेवारी - विवाह अपने सगे संबंधियों के बीच नहीं किया जा सकता है। सपिण्ड नातेदारी -- सपिंड नातेदारी के अंतर्गत आने वाले की पुरुष आपस में विवाह नहीं कर सकते। 

प्रतिषेध नातेदारी और सपिंडनातेदारी के अंतर्गत विवाह मान्य होता है यदि उनमे से प्रत्येक को शासित होने वाली रूढि या प्रथा उन दोनों के बीच अनुज्ञान करती हो ।

• कुछ महत्वपूर्ण वाद (Landmark Judgment) 

लिली थॉमस बनाम भारत संघ ( 2000 )  इस बाद में पत्नी के रहते हुए भी पति ने दूसरा विवाह कर लिया तथा अपराध से बचने के लिए उसने धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गया । उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि वह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 17 के अंतर्गत तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 494/495 के अतर्गत दोषी है क्योंकि धर्म परिवर्तन करने मात्र से उसका विवाह समाप्त नहीं हो गया है ।  

गुलाबिया बनाम सिताविया न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि किसी हिदू ने दूसरा विवाह कर लिया है और उससे संताने भी उत्पन्न हो गई है तो वहा भी धारा 5 ( i ) के अंतर्गत दूसरा विवाह शून्य होगा अतः पति के संपत्ति में दूसरी पत्नी को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा । धारा 5 ( ii ) के अनुसार दोनों पक्षकारों में आपसी सहमति होनी चाहिए . इसके साथ ही दोनों पक्षकार स्वस्थचित हों तथा उनमें से कोई भी पागल न हो ।  

अल्का शर्मा बनाम अभिनाश चंद्रा ( 1991 ) इस मामले में न्यायालय ने निर्धारित किया कि दोनों पक्षकार वैवाहिक दायित्व पूर्ण करने तथा संतान उत्पन्न करने में योग्य होने चाहिए तथा न्यायालय ने पत्नी को मस्तिष्क विकृत पोषित कर दिया ।  धारा 5(iii ) के अनुसार यदि कोई लडका विसी अवयस्क लड़की से विवाह करता है तो वह धारा 18 के अंतर्गत 2 साल की सजा या । लाख जुमनि से दंडित होगा या दोनों से दण्डित होगा । धारा 5 ( iv ) च ( v ) के अंतर्गत क्रमशः प्रतिषध नातेदारी व सपिण्ड नातेदारी के अंतर्गत विवाह मान्य होता है । 
यदि किसी व्यक्ति की एक पत्नी है तो उससे उत्पन्न संतानों पूर्ण रक्त के माने जाएग । 
यदि कोई व्यक्ति दो स्त्रियों से विवाह करता है तो दोनों स्त्रियों से उत्पन्न संतान आपस में अर्धरक्त के होंगे । 
एक ही गर्भाश्य से उत्पन्न संताने एकोदर रक्त के अंतर्गत आते हैं ।  पिता अलग - अलग हो। 

श्रीमती शकुंतला देवी बनाम अमरनाथ  मे निर्धारित किया कि रूढ़ियों के आधार पर जो अति प्राचीन हो तथा मानव स्मृति से परे हो उस स्थिति में प्रतिषेध संबंधियों के बीच विवाह हो सकता है यदि यह प्रथा प्राचीन समय से निरंतर चली आ रही हो । 

लक्ष्मण राव नावलकर बनाम मीना नावलकर  सपिंड विवाह मान्य हो सकता है यदि उनके बीच मान्य रूढ़ि हो, इस वाद मे पत्नी रूढ़ि को सिद्ध नहीं कर पाई और न्यायालय ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया । 

• हिन्द विवाह के कर्मकांड ( धारा 7 ) :- हिंदू विवाह उसमें के पक्षकारों में से किसी के रूढ़िगत आचारो और संस्कारों के अनुरूप अनुष्ठापीत हो सकेगा । जहां ऐसे आचार और संस्कारों के अंतर्गत सापदी है ( अग्नि के समक्ष वर व वधु को सात फेरे लेने होते हैं । विवाह पूरा और बाध्यकर तब हो जाता है जब सातवा पद पूरा हो जाता है ।

भाऊराव शंकर लोखड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य(1965 ) 
इस बाद में न्यायालय ने निर्धारित किया कि विवाह उचित रीति एवं संस्कारों द्वारा संपन्न होना चाहिए तथा सप्तपदी द्वारा सातवां फेरा पूर्ण होने पर ही विवाह सम्पन्न माना जायेगा । 
एस . नागालिंगम बनाम शिवागामी न्यायालय ने निर्धारित किया कि सप्तपदी केवल उन्हीं मामलों में लागू होता है जहां विवाह के पूर्व पक्षकार किसी विधि मानता के अंतर्गत समझते हो अन्यथा अन्य रीति - रिवाज से किया गया विवाह भी वैध माना जाएगा । 

• विवाह का रजिस्ट्रीकरण Registration of marriage ( धारा 8 ) 
इस धारा के अधीन बनाए गए सभी नियमों को उनके बनाए जाने के पश्चात यथाशीघ्र राज्य विधान मंडल के समक्ष रखे जाएंगे। हिंदू विवाह रजिस्टर सम युक्तियुक्त समय पर निरीक्षण के लिए खुला रहेगा और उसमें अन्तरविष्ट वचन साक्ष्य के रूप में ग्राह होंगे और रजिस्ट्रार के यहा आवेदन कर तथा उचित फीस का भुगतान किए जाने पर ही प्रभावी होगा । इस धारा में किसी बात के बीच अंतरविष्ट होते हुए किसी हिंदू विवाह की मान्यता ऐसे प्रविष्टि करने के लोप द्वारा किसी भी तरीके से प्रभावित ना होगी । 

श्रीमती सीमा बनाम अश्वनी कुमार ( 2006 ) विवाह जन्म - मरण सांख्यिकी की तरह होता है जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को चाहे किसी भी धर्म का हो विवाह हुआ है तो उनका रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य होता है । 

दाम्पत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन Restitution of conjugal rights(धारा 9) 
जब पति या पत्नी में से किसी ने भी युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना अपने को दूसरे से अलग कर लिया है तब पीड़ित पक्षकार दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए याचिका द्वारा आवेदन दिला न्यायालय में कर सकेगा और न्यायालय ऐसी याचिका में किए गए कथनों के सत्यता के बारे में और इस बात के बारे में आवेदन मंजूर करने का कोई वैध आधार नहीं है अपनी संतुष्टि हो जाने पर तदनुसार दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए , आज्ञाप्ति हो सकेगा । 

आवश्यक तत्व 
जब पति पत्नी में से कोई भी पक्षकार के साथ रहना छोड़ दे। 
परित्याग व्यक्ति के तर्कों से पूर्ण संतुष्ट होना चाहिए । 
प्रार्थनापत्र अस्वीकार करने का कोई वैध आधार न हो ।  

प्रमिला बाला बारीक बनाम रवीन्द्रनाथ बारीक (1977 ) 
इस वाद में पत्नी का यह तर्क था कि उसके साथ उसकी सास क्रूरता करती और वह सिद्ध कर देती है . तो पति की पुनर्स्थापन की याचिका खारिज हो जाएगी। 

• न्यायिक पृथक्करण Judicial Separation( धारा 10 ) पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति से एक दूसरे से अलग रहने की प्रक्रिया न्यायिक पृथक्करण कहलाती है । 

धारा 10 के अनुसार विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व हुआ हो चाहे उसके बाद हुआ हो जिला न्यायालय में धारा 13 की उपधारा 1 में और पत्नी की दशा में उपधारा 2 के अधीन विनिर्दिष्ट आधारों में से ऐसे आधार पर जिस पर विवाह विच्छेद के लिए भी दी गई है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना कर सकेगा। न्यायिक पृथक्करण एवं विवाह विच्छेद के लिए एक ही आधार है जिसके अनुसार न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करें या विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करें ऐसे मामले के आधार पर और परिस्थितियों के अनुसार किया जाना चाहिए। 

• विवाह की अकृतता और विवाह विच्छेद ( धारा 11-18 )
धारा 11 ( शून्य विवाह) 
इस अधिनियम के प्रारंभ या पश्चात अनु स्थापित किया गया कोई विवाह इस अधिनियम के धारा 5 ( 1 , iv , v ) में उल्लिखित आधारों में से किसी एक का उल्लंघन करता है तो वह विवाह शून्य होगा और उसमें के किसी भी पक्षकार द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा | शून्य विवाह से आशय है विवाह का कोई अस्तित्व ही नहीं है । 

यमुना बाई बनाम अन्तर राव AIR 1981SC 644
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया हो ऐसे विवाह को किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से प्रवर्तन नहीं करा जा सकता है 

संतोष कुमार बनाम सुरजीत सिंह ( 1990 ) इस वाद में कहा गया कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया हो तो दूसरा विवाह शून्य होगा और वह व्यक्ति भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत दंडनीय अपराधी भी होगा।  

मीनाक्षी सुंदरम बनाम नंबलवार AIR 1970 मद्रास 402
इस वाद में निर्धारित किया गया कि हिंदू विवाह को प्रतिषेध नातेदारी के आधार पर शून्य घोषित किया जा सकता है यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार अपने समाज के भीतर चलने वाली रूढि और प्रथाओं को सिद्ध नहीं कर पाता है जिनके अधीन प्रतिषेध नातेदारी के भीतर विवाह किए जाने की मान्यता प्राप्त हो  

धारा 12 ( शून्य - करणीय विवाह ) 
कोई विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व या पश्चात अनुस्थापित किया गया है निम्न आधारों में से किसी भी आधार पर शून्य - करणीय घोषित किया जा सकता है । 

(i) नपुंसकता के कारण  
(ii) धारा 5 ( ii ) के आधार पर 
(iii) यदि सम्मति कपट द्वारा प्राप्त की गई हो । (iv) यदि पत्नी विवाह पूर्व किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी । 
        Divorce धारा 13( विवाह विच्छेद ) 
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 ( 1 ) में विवाह विच्छेद के निम्नलिखित आधार हैं। 

13 ( 1 ) में वर्णित आधार इस प्रकार हैं प्रत्यर्थी के द्वारा विवाह के बाद जारता ( Adultery ) जिसे सामान्य शब्दों में व्यभिचार कहा जाता है । जब विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार विवाह होने के बाद भी कहीं अन्य जगह अवैध शारीरिक संबंध रखता है तो यह जारता कहलाता है । इस आधार पर विवाह का व्यथित पक्षकार याचिका लाकर प्रत्यर्थी के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करवा सकता है ।  
क्रूरता- न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करने हेतु एक मजबूत कारण होता है । क्रूरता को अधिनियम में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि समय परिस्थितियों के अनुसार क्रूरता के अर्थ बदलते रहते हैं । न्यायालय में आए समय - समय पर प्रकरणों में भिन्न भिन्न क्रूरता देखी गई हैं । 

जियालाल बनाम सरला देवी एआईआर 1978 जम्मू कश्मीर 67 में पति ने पत्नी पर आरोप लगाया कि पत्नी की नाक से ऐसी खराब दुर्गंध निकलती है कि वह उसके साथ बैठ नहीं सकता और सहवास नहीं कर सकता और इस कारण विवाह का प्रयोजन ही समाप्त हो गया है तथा पागलपन का आरोप लगाते हुए भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत की और उसे क्रूरता के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचना की गई । 
पत्नी ने आरोपों को अस्वीकार किया । अपील में उच्च न्यायालय ने माना कि क्रूरता के लिए -मंतव्य और आशय जो क्रूरता के लिए आवश्यक तत्व है सिद्ध नहीं हुआ । क्रूरता एक ऐसी प्रकृति का स्वेच्छा पूर्ण आचरण होता है जिससे एक दूसरे के जीवन शरीर अंग के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है । इसमें मानसिक वेदना भी सम्मिलित हैं । 
इस प्रकृति का अकेला एक कार्य भी गंभीर प्रकृति का है तो न्यायिक पृथक्करण के लिए एक पर्याप्त आधार हो सकता है । सामाजिक दशाएं पक्षकारों का स्तर उनके सांस्कृतिक विकास शिक्षा से भिन्नता पैदा होती है क्योंकि कहीं एक कार्य के मामले में क्रूरता माना जाता है वहीं दूसरे मामले में उसी कार्य हेतु वैसा कुछ नहीं माना जाता । कभी - कभी बच्चों या परिवार के रिश्तेदारों के कार्य भी क्रूरता का गठन करते हैं और इससे व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है । जहां पत्नी अपने पति के विरुद्ध अपमानजनक भाषा गाली देने वाले शब्दों का प्रयोग कर रही हो और ऐसा ही आचरण पति के माता - पिता के साथ करके परिवार की शांति भंग कर रही हो वहां उसका आचरण क्रूरता कहलाएगा । जहां सास प्रत्येक दिन पुत्रवधू के साथ दुर्व्यवहार करती है उसका पति इसमें कोई आपत्ति नहीं करता है वहां पत्नी इस अधिनियम के अधीन इस संदर्भ में निवेदित डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी बन जाती हैं । पत्नी के मानसिक परपीड़न को अनदेखा इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई थी । 

सुलेखा बैरागी बनाम कमलाकांत बैरागी एआईआर 1980 कोलकाता 370 के मामले निर्धारित किया गया है कि शारीरिक चोट ही क्रूरता नहीं दर्शाती है अपितु मानसिक चोट भी क्रूरता है। अतः न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु क्रूरता का आधार एक महत्वपूर्ण आधार है ।

धर्म परिवर्तन द्वारा यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु न्यायालय के समक्ष आवेदन कर सकता है । 

पागलपन यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार पागल हो जाता है या असाध्य मानसिक विकृतचितता निरंतरता के मनोविकार से पीड़ित हो जाता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद के लिए आवेदन न्यायालय के समक्ष कर सकता है । 

संचारी रोग से पीड़ित होना यदि विवाह का पक्षकार किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित है तथा बीमारी ऐसी है जो संभोग के कारण विवाह के दूसरे पक्षकार को भी हो सकती है तो ऐसी परिस्थिति में विधि किसी व्यक्ति के प्राणों के लिए खतरा नहीं हो सकती तथा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है तथा विवाह को बचाए रखते हुए विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद प्राप्त कर सकता है ।  

संन्यासी हो जाना यदि विवाह का कोई पक्ष कार सन्यासी हो जाता है तथा संसार को त्याग देता है व धार्मिक प्रवज्या धारण कर लेता है तो ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन करके न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद हेतु डिक्री पारित करवा सकता है । 

7 वर्ष तक लापता रहना यदि विवाह का कोई पक्षकार 7 वर्ष तक लापता रहता है तथा पति या पत्नी का परित्याग करके भाग जाता है या किसी कारण से उसका कोई ठिकाना या पता मालूम नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्ष न्यायालय के समक्ष न्यायिक पृथक्करण /विवाह विच्छेद हेतु डिक्री की मांग कर सकता है । 

संक्षिप्त में निम्न प्रकार है- 1. यदि कोई पक्षकार जारता करता है या  दूसरे पक्षकार के साथ क्रूरताएँ की गयी हो या 
2. ) विवाह के बाद कम से कम 2 साल तक अर्जीदार को अभिव्यक्त रखा है 
3.) यदि दूसरा पक्षकार धर्म बदलकर गैर हिन्दू हो गया हो या 
4.) कोई पक्षकार इस तरह मानसिक विकार से पीड़ित हो कि इलाज सम्भव न हो या दूसरा पक्षकार गम्भीर यौन रोग से पीड़ित हो या 
5.) दूसरा पक्षकार संसार का परित्याग कर दिया हो या 
6.) दूसरा पक्षकार सात साल या अधिक समय से लापता हो । 

केवल पत्नी को तलाक लेने का आधार धारा[13(2 )]
निम्नलिखित आधार पर पत्नी तलाक ले सकेगी 1. जब विवाह के समय उसकी कोई अन्य पत्नी जीवित हो या 
2. उसका पति विवाह के अनुष्ठान से बलात्कार गुदा मैथुन , पशुगमन का दोषी पाया गया है या 3. बिक्री भरण पोषण की प्राप्त हो और एक साल या उससे अधिक समय से सहवास न किया हो या 
4. यदि महिला का विवाह 15 साल आयु प्राप्त करने के पहले हुआ था तो वह 15 साल के बाद और 18 साल के पहले विवाह का निराकरण करा सकती है । 

विवाह विच्छेद की कार्यवाहियों में वैकल्पिक अनुतोष धारा 13 (क) विवाह विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में उस दशा को छोड़कर जहां अर्जी धारा 13 ( 1 ) , (2) , ( 6 ) और ( 7 ) के आधारों से परे है यदि न्यायालय उचित समझाता है तो विवाह उच्छेद के जगह न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर सकेगा । 
धारा 13 ख के अनुसार पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद कराया जा सकता है यदि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हैं अब एक साथ नहीं रह सकते इस बात पर सहमत हैं तो विवाह विघटित कर दिया जायेगा । धारा 14 के अनुसार विवाह भंग की कोई भी याचिका विवाह होने के वर्ष के भीतर नहीं दायर की जा सकती है लेकिन उच्च न्यायालय कुछ विशेष परिस्थितियों में समाधान हो जाने पर इसकी इजाजत दे सकता है । 
धारा 15 के अनुसार तलाक प्राप्त व्यक्ति पुनः विवाह कर सकते हैं का प्रावधान दिया गया है यदि तलाक हो गया हो और अपील का कोई आधार ना हो या अपील का अधिकार हो लेकिन समय समाप्त हो गया हो या अपील खारिज कर दी गई हो तब विवाह के पक्षकार पुनर्विवाह कर सकेंगे । 
धारा 16 के अनुसार शून्य-करणीय विवाह की संताने वैध होती है चाहे बच्चे का जन्म विवाह विधि ( संशोधन ) । अधिनियम 1976 के प्रारंभ से पूर्व हुआ हो या पश्चात हुआ हो उसकी धर्मज संतान मानी जाती है । 
धारा 17 के अनुसार विवाह की तारीख से किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित था या थी तो ऐसा कोई भी विवाह शून्य होगा और आईपीसी की धारा 494 व 495 उस व्यक्ति पर लागू होगी। 
धारा 18 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो की धारा 5 ( iii ) , ( iv ) च ( v ) में उल्लेखित शतों में है और को धारा 5 ( iii ) उल्लंघन करके विवाह करता है तो उसे 2 वर्ष की कारावास या जुर्माने से जो लाख का हो सकेगा या दोनों से जाएगा । 

यदि वह धारा 5 ( iv ) व ( V ) का उल्लंघन करता है तो उसे 1 माह की सजा या 1000 जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा।