सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

हिन्दू विधि (Hindu Law) :- भाग 1

हिन्दू कौन हैं (Who is Hindu) ? 
वस्तुतः हिन्दू (Hindu) शब्द किसी जाति या सम्प्रदाय का बोधक नहीं है और न ही यह शब्द किसी विशेष धर्म का वाचक है। हिन्दू कहे जाने वाले व्यक्तियों के आधार तथा रीति रिवाजों में इतना अधिक विरोध है कि हिंदू शब्द के साँस्कृतिक इकाई का बोधक होने की बात अत्यंत आश्चर्यजनक प्रतीत होती है । इस धर्म के अंतर्गत कोई एक ही पैगंबर नहीं हुआ , कोई एक ही देवी - देवता की उपासना नहीं बताई गई है , कोई एक ही मत एवं आस्था का उदय नहीं हुआ । जिससे यह कहा जा सके कि उसमे से किसी एक में विश्वास करने वाला व्यक्ति ही हिंदू है अर्थात् सिंधु घाटी सभ्यता में निवास करने वाले हर व्यक्ति हिंदू कहलाते थे। जबकि हिंदू अधिनियम पारित होने के उपरांत लिन्दू शब्द में व्यापक परिवर्तन हुए अर्थात हिंदू विधि निम्नलिखित व्यक्तियों पर लागू होगी जिसके अंतर्गत वीरशैव , लिंगायत , ब्रह्म समाज , प्रार्थना समाज , आर्य समाज के साथ साथ ऐसा व्यक्ति जो बौद्ध हो , जैन हो , सिक्ख हो उस पर भी हिन्दू विधि लागू होगी । भारत में मुसलमान , ईसाई , पारसी , यहूदी को छोड़कर अन्य कोई है और उसका धर्म निर्धारित नहीं हो पा रहा है तो उसपर हिन्दू विधि लागू होगी । लेकिन मुसलमान , ईसाई , पारसी , यहूदी भी धर्म परिवर्तन करके हिंदू बन सकते हैं। 

• हिन्दू विधि के स्रोत – ( sources of Hindu Law ) 
» हिन्दू विधि के मुख्यतः दो स्रोत है - 
1. प्राचीन स्रोत 
2. आधुनिक स्रोत प्राचीन स्रोत 

        प्राचीन स्रोत (Ancient Sources) 

 इसके अंतर्गत निम्नलिखित चार स्रोत आते हैं । 1. श्रुति 
2. स्मृति - मनुस्मृति , याज्ञवलक्य , अर्थशास्त्र , नारद स्मृति , बृहस्पति स्मृति इत्यादि । 
3. भाष्य एवं निबंध 
4. रूढ़ि और प्रथा 

श्रुति :- श्रुति का अर्थ है सुनना या जो सुना गया है। इसके विषय में यह मत प्रचलित है कि यह वाक्य ईश्वर द्वारा ऋषियो पर प्रकट किए गए थे जो मुख से जिस प्रकार निकले उसी रूप में अंकित है । यह श्रुतिया सर्वोपरि समझी जाती हैं। चार वेद- ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद इसी के अंतर्गत आते हैं । 

स्मृति:- स्मृति का शाब्दिक अर्थ है स्मरण रखा जाना । स्मृतियों में मानवीय प्रवृतियां पाई जाती है । कुछ विद्वानों का मत है कि स्मृलियां उन्हीं ऋषियों द्वारा संकलित की गई थी जिस पर वेद प्रकट हुए अतः उन्हें भी उसी प्रकार प्रमाणित माना जाता है जिस प्रकार हम श्रुतियों को मानते हैं । 

भाष्य तथा निबंध:- हिंदू विधि का विकास अनेक रूपों में विभिन्न स्रोतों द्वारा हुआ जिसके परिणाम स्वरूप स्मृतियों के विधि में अनेक मतभेद , अपूर्णताए तथा अस्पष्टताएं आ गई थी । भाष्यों के अतिरिक्त निबंधों की भी रचना की गई , निबंधों में दूसरी तरफ किसी प्रकरण विशेष पर अनेक स्मृतियों के पाठों को अवतरित करके उस संबंध विधि को स्पष्ट किया गया है । . 

रूढि और प्रथा:- व्यक्तिगत विधि में रूढि एवं प्रथाओं को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है जिससे विधि को निर्धारित करने में यह सहायक होती हैं । विधिक अर्थ में प्रथाओं का अभिप्राय उन नियमों से है जो एक समाज वर्ग अथवा परिवार विशेष में माने जाते हैं । 

     आधुनिक स्रोत (Modern Sources) 

 1) न्यायिक निर्णय (Judicial decision):- वे न्यायिक निर्णय जो हिंदू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किए जाते हैं विधि के स्रोत समझे जाते हैं । अब हिंदू विधि पर सभी महत्वपूर्ण बातें विधि रिपोर्ट में सुलभ है । सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं। लेकिन एक उच्च न्यायालय का निर्णय दूसरे उच्च न्यायालय पर बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखते है | ॥ 

2) विधायन ( अधिनियम ) :- विधि के स्रोत में अधिनियमो का महत्व वर्तमान काल में बहुत अधिक बढ़ गया है । वस्तुतः विधि का यह स्रोत आधुनिक युग के नवीन स्रोतों में आता है अब किसी भी देश में विधि निर्मित करने का अथवा परिवर्तन करने का अधिकार किसी व्यक्ति विशेष को व्यक्तिगत रूप से नहीं प्राप्त है ऐसा अधिकार प्रभु सत्ताधारी को ही प्राप्त है । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 , हिन्दू व्यस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम 1956 , हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 , इसके मुख्य उदाहरण है । 

• हिन्द विधि की शाखाएँ ( School of Hindu law )

हिंदू विधि की निम्नलिखित दो शाखाएं हैं 
1. मिताक्षरा शाखा 
2.दायभाग शाखा 

1. मिताक्षरा शाखा 
• मिताक्षरा की पाँच उपशाखाएँ निम्नलिखित है । 
1 ) बनारस शाखा:- पंजाब तथा मिथिला को छोड़कर यह शाखा समस्त उत्तरी भारत में व्याम है , जिसमें उड़ीसा भी सम्मिलित है मध्य भारत की भी स्थानीय विधि हिंदू विधि की बनारस शाखा से प्रशासित है । 

2 ) मिथिला शाखा:- यह शाखा सामान्यतः उत्तरी बिहार में प्रचलित है कुछ विषयों को छोड़कर इस शाखा के विधि मिताक्षरा के विधि है इस बात का समर्थन प्रिवी काउंसिल ने सुरेंद्र बनाम हरिप्रसाद के बाद में किया है । 

3) द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा :- समस्त माला में हिंदू विधि की मात्रामाशांच्या प्रचालित ही पहले यह शासक पक्ति , जाटिका तया आंदा . 

4) महाराष्ट्र अथवा बंबई शाखा :- यह शाखा समस्त मुंबई प्रदेश में प्रचलित है जिसमें गुजरात क्षेत्र के साथ - साथ वे प्रदेश में प्रचलित है जहां मराठी बोली जाती है । 

5 ) पंजाब शाखा:- यहां शाखा पूर्वी पंजाब वाले प्रदेश में प्रचलित है इस शाखाओं में प्रयाओं को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है । 

2.दायभाग शाखा

दायभाग हिंदू विधि की एक प्राचीनतम धारणा है जिसका प्रभाव बंगाल में तथा असम के कुल क्षेत्रों में प्रचलित है । 

• मिताक्षरा तथा दायभाग की विधियों में अन्तर  
दायभाग शाखा 
दायभाग शाखा मे पुत्र का पिता के संपत्ति में अधिकार पिता के मृत्यु के पश्चात बतान्न होता है । 
दाय पारलौकिक लाभ प्राप्त करने के सिद्धांत पर आधारित है । 
फैक्टम बैलेट का सिद्धांत दायभाग में पूर्ण रूप से माना गया है दायभाग समस्त संहिता का एक सार संग्रह है ।

मिताक्षरा शाखा 

मिताक्षरा शाखा के अंतर्गत संयुक्त संपत्ति में पुत्र का पिता के पैतृक संपत्ति में जन्म से ही अधिकार हो जाता है । दाय के संबंध में यह सिद्धांत रक्त पर आधारित है ।  

फैक्टम वैलेट का सिद्धांत मिताक्षरा विधि में सीमित रूप में माना गया है । इसमें निकट संबधी को उत्तराधिकार के मामले में अधिक महत्व दिया गया है । . 

                  विवाह (Marriage) 
विवाह की परिभाषा वर के द्वारा कन्या को स्त्री के रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति ही विवाह है । 

विवाह की 8 पद्धतियां ( विवाह अधिनियम 1955 के पूर्व ) प्रचलित थी, जिसके अंतर्गत चार मान्य पद्धतिया तथा चार अमान्य पद्धतिया है जो निम्नलिखित है । 

 मान्य विवाह पद्धतियां - 
 ब्रह्म विवाह 
 देव विवाह 
 आर्ष विवाह 
 प्रजापत्य विवाह 

अमान्य विवाह पद्धतियां- 
असुर विवाह 
गंधर्व विवाह  
राक्षस विवाह 
पैशाच विवाह 


विवाह एक संस्कार है या संविदा ?

स्मृति काल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है । विवाह जो पहले एक पवित्र बंधन था अब अधिनियम लागू हो जाने के अंतर्गत ऐसा नहीं रह गया है । कुछ विधि विशेषज्ञों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है । अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं बल्कि विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है ।
विवाह हिंदुओं के ऐसे महत्वपूर्ण संस्कारों में ऐसे है जो किसी के लिए भी वर्जित नहीं है, प्रथा सभी जातियों के लिए आवश्यक माना जाता था इस संस्कार के अनुसार स्त्री एवं पुरुष मे एक पुत्र उत्पन्न करने के लिए एकीकरण होता है । 

प्रत्येक हिंदू तीन ऋणों को लेकर उत्पन्न होता है , देवऋण , ऋषि ऋण और पितृ ऋण 

इसके साथ ही स्वर्ग की प्राप्ति के लिए , वंश की वृद्धि के लिए तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए विवाह अति आवश्यक है । 
जबकि विवाह संविदा होने का आधार निम्नलिखित है . . 
बहु विवाह  
विवाह विच्छेद 
अंतर जाति विवाह 
विवाह की शर्तें 
यौन विमारी 
जारता 
उम्र में परिवर्तन इत्यादि । 

भगवती शरण सिंह बनाम परमेश्वरी नंदर सिंह इस मामले में निर्धारित किया गया की हिंदू विवाहा संस्कार ही नहीं बल्कि एक संविदा 

पुरुषोत्तम दास बनाम पुरुषोत्तम दास -इस वाद में निर्धारित किया गया की हिन्दू धर्म में विवाह एक संविदा है और संविदा के फल स्वरुप उसकी संतानों का अस्तित्व है । 

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 .विवाह की शर्ते ( धारा 5) हिंदू विवाह के निम्नलिखित शते हैं 
• यदि कोई पुरुष है तो उसकी कोई जीवित पत्नी न हो और यदि कोई स्त्री है तो उसका कोई जीवित पति न हो । 
• दोनों पक्षकारों में विवाह करने के लिए आपस में सहमति का होना आवश्यक है । 
• विवाह करने के लिए लड़के की आयु न्यूनतम 21 साल और लड़की की आयु न्यूनतम 18 साल के होनी चाहिए । 
• प्रतिषेध नातेवारी - विवाह अपने सगे संबंधियों के बीच नहीं किया जा सकता है। सपिण्ड नातेदारी -- सपिंड नातेदारी के अंतर्गत आने वाले की पुरुष आपस में विवाह नहीं कर सकते। 

प्रतिषेध नातेदारी और सपिंडनातेदारी के अंतर्गत विवाह मान्य होता है यदि उनमे से प्रत्येक को शासित होने वाली रूढि या प्रथा उन दोनों के बीच अनुज्ञान करती हो ।

• कुछ महत्वपूर्ण वाद (Landmark Judgment) 

लिली थॉमस बनाम भारत संघ ( 2000 )  इस बाद में पत्नी के रहते हुए भी पति ने दूसरा विवाह कर लिया तथा अपराध से बचने के लिए उसने धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गया । उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि वह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 17 के अंतर्गत तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 494/495 के अतर्गत दोषी है क्योंकि धर्म परिवर्तन करने मात्र से उसका विवाह समाप्त नहीं हो गया है ।  

गुलाबिया बनाम सिताविया न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि किसी हिदू ने दूसरा विवाह कर लिया है और उससे संताने भी उत्पन्न हो गई है तो वहा भी धारा 5 ( i ) के अंतर्गत दूसरा विवाह शून्य होगा अतः पति के संपत्ति में दूसरी पत्नी को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा । धारा 5 ( ii ) के अनुसार दोनों पक्षकारों में आपसी सहमति होनी चाहिए . इसके साथ ही दोनों पक्षकार स्वस्थचित हों तथा उनमें से कोई भी पागल न हो ।  

अल्का शर्मा बनाम अभिनाश चंद्रा ( 1991 ) इस मामले में न्यायालय ने निर्धारित किया कि दोनों पक्षकार वैवाहिक दायित्व पूर्ण करने तथा संतान उत्पन्न करने में योग्य होने चाहिए तथा न्यायालय ने पत्नी को मस्तिष्क विकृत पोषित कर दिया ।  धारा 5(iii ) के अनुसार यदि कोई लडका विसी अवयस्क लड़की से विवाह करता है तो वह धारा 18 के अंतर्गत 2 साल की सजा या । लाख जुमनि से दंडित होगा या दोनों से दण्डित होगा । धारा 5 ( iv ) च ( v ) के अंतर्गत क्रमशः प्रतिषध नातेदारी व सपिण्ड नातेदारी के अंतर्गत विवाह मान्य होता है । 
यदि किसी व्यक्ति की एक पत्नी है तो उससे उत्पन्न संतानों पूर्ण रक्त के माने जाएग । 
यदि कोई व्यक्ति दो स्त्रियों से विवाह करता है तो दोनों स्त्रियों से उत्पन्न संतान आपस में अर्धरक्त के होंगे । 
एक ही गर्भाश्य से उत्पन्न संताने एकोदर रक्त के अंतर्गत आते हैं ।  पिता अलग - अलग हो। 

श्रीमती शकुंतला देवी बनाम अमरनाथ  मे निर्धारित किया कि रूढ़ियों के आधार पर जो अति प्राचीन हो तथा मानव स्मृति से परे हो उस स्थिति में प्रतिषेध संबंधियों के बीच विवाह हो सकता है यदि यह प्रथा प्राचीन समय से निरंतर चली आ रही हो । 

लक्ष्मण राव नावलकर बनाम मीना नावलकर  सपिंड विवाह मान्य हो सकता है यदि उनके बीच मान्य रूढ़ि हो, इस वाद मे पत्नी रूढ़ि को सिद्ध नहीं कर पाई और न्यायालय ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया । 

• हिन्द विवाह के कर्मकांड ( धारा 7 ) :- हिंदू विवाह उसमें के पक्षकारों में से किसी के रूढ़िगत आचारो और संस्कारों के अनुरूप अनुष्ठापीत हो सकेगा । जहां ऐसे आचार और संस्कारों के अंतर्गत सापदी है ( अग्नि के समक्ष वर व वधु को सात फेरे लेने होते हैं । विवाह पूरा और बाध्यकर तब हो जाता है जब सातवा पद पूरा हो जाता है ।

भाऊराव शंकर लोखड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य(1965 ) 
इस बाद में न्यायालय ने निर्धारित किया कि विवाह उचित रीति एवं संस्कारों द्वारा संपन्न होना चाहिए तथा सप्तपदी द्वारा सातवां फेरा पूर्ण होने पर ही विवाह सम्पन्न माना जायेगा । 
एस . नागालिंगम बनाम शिवागामी न्यायालय ने निर्धारित किया कि सप्तपदी केवल उन्हीं मामलों में लागू होता है जहां विवाह के पूर्व पक्षकार किसी विधि मानता के अंतर्गत समझते हो अन्यथा अन्य रीति - रिवाज से किया गया विवाह भी वैध माना जाएगा । 

• विवाह का रजिस्ट्रीकरण Registration of marriage ( धारा 8 ) 
इस धारा के अधीन बनाए गए सभी नियमों को उनके बनाए जाने के पश्चात यथाशीघ्र राज्य विधान मंडल के समक्ष रखे जाएंगे। हिंदू विवाह रजिस्टर सम युक्तियुक्त समय पर निरीक्षण के लिए खुला रहेगा और उसमें अन्तरविष्ट वचन साक्ष्य के रूप में ग्राह होंगे और रजिस्ट्रार के यहा आवेदन कर तथा उचित फीस का भुगतान किए जाने पर ही प्रभावी होगा । इस धारा में किसी बात के बीच अंतरविष्ट होते हुए किसी हिंदू विवाह की मान्यता ऐसे प्रविष्टि करने के लोप द्वारा किसी भी तरीके से प्रभावित ना होगी । 

श्रीमती सीमा बनाम अश्वनी कुमार ( 2006 ) विवाह जन्म - मरण सांख्यिकी की तरह होता है जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को चाहे किसी भी धर्म का हो विवाह हुआ है तो उनका रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य होता है । 

दाम्पत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन Restitution of conjugal rights(धारा 9) 
जब पति या पत्नी में से किसी ने भी युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना अपने को दूसरे से अलग कर लिया है तब पीड़ित पक्षकार दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए याचिका द्वारा आवेदन दिला न्यायालय में कर सकेगा और न्यायालय ऐसी याचिका में किए गए कथनों के सत्यता के बारे में और इस बात के बारे में आवेदन मंजूर करने का कोई वैध आधार नहीं है अपनी संतुष्टि हो जाने पर तदनुसार दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए , आज्ञाप्ति हो सकेगा । 

आवश्यक तत्व 
जब पति पत्नी में से कोई भी पक्षकार के साथ रहना छोड़ दे। 
परित्याग व्यक्ति के तर्कों से पूर्ण संतुष्ट होना चाहिए । 
प्रार्थनापत्र अस्वीकार करने का कोई वैध आधार न हो ।  

प्रमिला बाला बारीक बनाम रवीन्द्रनाथ बारीक (1977 ) 
इस वाद में पत्नी का यह तर्क था कि उसके साथ उसकी सास क्रूरता करती और वह सिद्ध कर देती है . तो पति की पुनर्स्थापन की याचिका खारिज हो जाएगी। 

• न्यायिक पृथक्करण Judicial Separation( धारा 10 ) पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति से एक दूसरे से अलग रहने की प्रक्रिया न्यायिक पृथक्करण कहलाती है । 

धारा 10 के अनुसार विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व हुआ हो चाहे उसके बाद हुआ हो जिला न्यायालय में धारा 13 की उपधारा 1 में और पत्नी की दशा में उपधारा 2 के अधीन विनिर्दिष्ट आधारों में से ऐसे आधार पर जिस पर विवाह विच्छेद के लिए भी दी गई है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना कर सकेगा। न्यायिक पृथक्करण एवं विवाह विच्छेद के लिए एक ही आधार है जिसके अनुसार न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करें या विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करें ऐसे मामले के आधार पर और परिस्थितियों के अनुसार किया जाना चाहिए। 

• विवाह की अकृतता और विवाह विच्छेद ( धारा 11-18 )
धारा 11 ( शून्य विवाह) 
इस अधिनियम के प्रारंभ या पश्चात अनु स्थापित किया गया कोई विवाह इस अधिनियम के धारा 5 ( 1 , iv , v ) में उल्लिखित आधारों में से किसी एक का उल्लंघन करता है तो वह विवाह शून्य होगा और उसमें के किसी भी पक्षकार द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा | शून्य विवाह से आशय है विवाह का कोई अस्तित्व ही नहीं है । 

यमुना बाई बनाम अन्तर राव AIR 1981SC 644
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया हो ऐसे विवाह को किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से प्रवर्तन नहीं करा जा सकता है 

संतोष कुमार बनाम सुरजीत सिंह ( 1990 ) इस वाद में कहा गया कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया हो तो दूसरा विवाह शून्य होगा और वह व्यक्ति भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत दंडनीय अपराधी भी होगा।  

मीनाक्षी सुंदरम बनाम नंबलवार AIR 1970 मद्रास 402
इस वाद में निर्धारित किया गया कि हिंदू विवाह को प्रतिषेध नातेदारी के आधार पर शून्य घोषित किया जा सकता है यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार अपने समाज के भीतर चलने वाली रूढि और प्रथाओं को सिद्ध नहीं कर पाता है जिनके अधीन प्रतिषेध नातेदारी के भीतर विवाह किए जाने की मान्यता प्राप्त हो  

धारा 12 ( शून्य - करणीय विवाह ) 
कोई विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व या पश्चात अनुस्थापित किया गया है निम्न आधारों में से किसी भी आधार पर शून्य - करणीय घोषित किया जा सकता है । 

(i) नपुंसकता के कारण  
(ii) धारा 5 ( ii ) के आधार पर 
(iii) यदि सम्मति कपट द्वारा प्राप्त की गई हो । (iv) यदि पत्नी विवाह पूर्व किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी । 
        Divorce धारा 13( विवाह विच्छेद ) 
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 ( 1 ) में विवाह विच्छेद के निम्नलिखित आधार हैं। 

13 ( 1 ) में वर्णित आधार इस प्रकार हैं प्रत्यर्थी के द्वारा विवाह के बाद जारता ( Adultery ) जिसे सामान्य शब्दों में व्यभिचार कहा जाता है । जब विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार विवाह होने के बाद भी कहीं अन्य जगह अवैध शारीरिक संबंध रखता है तो यह जारता कहलाता है । इस आधार पर विवाह का व्यथित पक्षकार याचिका लाकर प्रत्यर्थी के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करवा सकता है ।  
क्रूरता- न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करने हेतु एक मजबूत कारण होता है । क्रूरता को अधिनियम में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि समय परिस्थितियों के अनुसार क्रूरता के अर्थ बदलते रहते हैं । न्यायालय में आए समय - समय पर प्रकरणों में भिन्न भिन्न क्रूरता देखी गई हैं । 

जियालाल बनाम सरला देवी एआईआर 1978 जम्मू कश्मीर 67 में पति ने पत्नी पर आरोप लगाया कि पत्नी की नाक से ऐसी खराब दुर्गंध निकलती है कि वह उसके साथ बैठ नहीं सकता और सहवास नहीं कर सकता और इस कारण विवाह का प्रयोजन ही समाप्त हो गया है तथा पागलपन का आरोप लगाते हुए भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत की और उसे क्रूरता के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचना की गई । 
पत्नी ने आरोपों को अस्वीकार किया । अपील में उच्च न्यायालय ने माना कि क्रूरता के लिए -मंतव्य और आशय जो क्रूरता के लिए आवश्यक तत्व है सिद्ध नहीं हुआ । क्रूरता एक ऐसी प्रकृति का स्वेच्छा पूर्ण आचरण होता है जिससे एक दूसरे के जीवन शरीर अंग के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है । इसमें मानसिक वेदना भी सम्मिलित हैं । 
इस प्रकृति का अकेला एक कार्य भी गंभीर प्रकृति का है तो न्यायिक पृथक्करण के लिए एक पर्याप्त आधार हो सकता है । सामाजिक दशाएं पक्षकारों का स्तर उनके सांस्कृतिक विकास शिक्षा से भिन्नता पैदा होती है क्योंकि कहीं एक कार्य के मामले में क्रूरता माना जाता है वहीं दूसरे मामले में उसी कार्य हेतु वैसा कुछ नहीं माना जाता । कभी - कभी बच्चों या परिवार के रिश्तेदारों के कार्य भी क्रूरता का गठन करते हैं और इससे व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है । जहां पत्नी अपने पति के विरुद्ध अपमानजनक भाषा गाली देने वाले शब्दों का प्रयोग कर रही हो और ऐसा ही आचरण पति के माता - पिता के साथ करके परिवार की शांति भंग कर रही हो वहां उसका आचरण क्रूरता कहलाएगा । जहां सास प्रत्येक दिन पुत्रवधू के साथ दुर्व्यवहार करती है उसका पति इसमें कोई आपत्ति नहीं करता है वहां पत्नी इस अधिनियम के अधीन इस संदर्भ में निवेदित डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी बन जाती हैं । पत्नी के मानसिक परपीड़न को अनदेखा इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई थी । 

सुलेखा बैरागी बनाम कमलाकांत बैरागी एआईआर 1980 कोलकाता 370 के मामले निर्धारित किया गया है कि शारीरिक चोट ही क्रूरता नहीं दर्शाती है अपितु मानसिक चोट भी क्रूरता है। अतः न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु क्रूरता का आधार एक महत्वपूर्ण आधार है ।

धर्म परिवर्तन द्वारा यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु न्यायालय के समक्ष आवेदन कर सकता है । 

पागलपन यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार पागल हो जाता है या असाध्य मानसिक विकृतचितता निरंतरता के मनोविकार से पीड़ित हो जाता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद के लिए आवेदन न्यायालय के समक्ष कर सकता है । 

संचारी रोग से पीड़ित होना यदि विवाह का पक्षकार किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित है तथा बीमारी ऐसी है जो संभोग के कारण विवाह के दूसरे पक्षकार को भी हो सकती है तो ऐसी परिस्थिति में विधि किसी व्यक्ति के प्राणों के लिए खतरा नहीं हो सकती तथा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है तथा विवाह को बचाए रखते हुए विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद प्राप्त कर सकता है ।  

संन्यासी हो जाना यदि विवाह का कोई पक्ष कार सन्यासी हो जाता है तथा संसार को त्याग देता है व धार्मिक प्रवज्या धारण कर लेता है तो ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन करके न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद हेतु डिक्री पारित करवा सकता है । 

7 वर्ष तक लापता रहना यदि विवाह का कोई पक्षकार 7 वर्ष तक लापता रहता है तथा पति या पत्नी का परित्याग करके भाग जाता है या किसी कारण से उसका कोई ठिकाना या पता मालूम नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्ष न्यायालय के समक्ष न्यायिक पृथक्करण /विवाह विच्छेद हेतु डिक्री की मांग कर सकता है । 

संक्षिप्त में निम्न प्रकार है- 1. यदि कोई पक्षकार जारता करता है या  दूसरे पक्षकार के साथ क्रूरताएँ की गयी हो या 
2. ) विवाह के बाद कम से कम 2 साल तक अर्जीदार को अभिव्यक्त रखा है 
3.) यदि दूसरा पक्षकार धर्म बदलकर गैर हिन्दू हो गया हो या 
4.) कोई पक्षकार इस तरह मानसिक विकार से पीड़ित हो कि इलाज सम्भव न हो या दूसरा पक्षकार गम्भीर यौन रोग से पीड़ित हो या 
5.) दूसरा पक्षकार संसार का परित्याग कर दिया हो या 
6.) दूसरा पक्षकार सात साल या अधिक समय से लापता हो । 

केवल पत्नी को तलाक लेने का आधार धारा[13(2 )]
निम्नलिखित आधार पर पत्नी तलाक ले सकेगी 1. जब विवाह के समय उसकी कोई अन्य पत्नी जीवित हो या 
2. उसका पति विवाह के अनुष्ठान से बलात्कार गुदा मैथुन , पशुगमन का दोषी पाया गया है या 3. बिक्री भरण पोषण की प्राप्त हो और एक साल या उससे अधिक समय से सहवास न किया हो या 
4. यदि महिला का विवाह 15 साल आयु प्राप्त करने के पहले हुआ था तो वह 15 साल के बाद और 18 साल के पहले विवाह का निराकरण करा सकती है । 

विवाह विच्छेद की कार्यवाहियों में वैकल्पिक अनुतोष धारा 13 (क) विवाह विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में उस दशा को छोड़कर जहां अर्जी धारा 13 ( 1 ) , (2) , ( 6 ) और ( 7 ) के आधारों से परे है यदि न्यायालय उचित समझाता है तो विवाह उच्छेद के जगह न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर सकेगा । 
धारा 13 ख के अनुसार पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद कराया जा सकता है यदि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हैं अब एक साथ नहीं रह सकते इस बात पर सहमत हैं तो विवाह विघटित कर दिया जायेगा । धारा 14 के अनुसार विवाह भंग की कोई भी याचिका विवाह होने के वर्ष के भीतर नहीं दायर की जा सकती है लेकिन उच्च न्यायालय कुछ विशेष परिस्थितियों में समाधान हो जाने पर इसकी इजाजत दे सकता है । 
धारा 15 के अनुसार तलाक प्राप्त व्यक्ति पुनः विवाह कर सकते हैं का प्रावधान दिया गया है यदि तलाक हो गया हो और अपील का कोई आधार ना हो या अपील का अधिकार हो लेकिन समय समाप्त हो गया हो या अपील खारिज कर दी गई हो तब विवाह के पक्षकार पुनर्विवाह कर सकेंगे । 
धारा 16 के अनुसार शून्य-करणीय विवाह की संताने वैध होती है चाहे बच्चे का जन्म विवाह विधि ( संशोधन ) । अधिनियम 1976 के प्रारंभ से पूर्व हुआ हो या पश्चात हुआ हो उसकी धर्मज संतान मानी जाती है । 
धारा 17 के अनुसार विवाह की तारीख से किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित था या थी तो ऐसा कोई भी विवाह शून्य होगा और आईपीसी की धारा 494 व 495 उस व्यक्ति पर लागू होगी। 
धारा 18 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो की धारा 5 ( iii ) , ( iv ) च ( v ) में उल्लेखित शतों में है और को धारा 5 ( iii ) उल्लंघन करके विवाह करता है तो उसे 2 वर्ष की कारावास या जुर्माने से जो लाख का हो सकेगा या दोनों से जाएगा । 

यदि वह धारा 5 ( iv ) व ( V ) का उल्लंघन करता है तो उसे 1 माह की सजा या 1000 जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा। 

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

2020 कुछ महत्वपूर्ण संवैधानिक निर्णय-सार (some important landmark constitutional judgment)

1. बी . के रविचन्द्र और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य 

स्रोत - सिविल अपील संख्या 1460 वर्ष 2010

निर्णय तिथि -24 नवम्बर , 2020 

खण्डपीठ - इन्दिरा बनर्जी और एस . रवीन्द्र भाट , न्यायमूर्तिगण । 

प्रावधान -अनुच्छेद 300 क - अपीलार्थी की भूमि सरकारी उपयोग हेतु अधिग्रहीत करके उसे 33 वर्षों तक अपने कब्जे में रखने और अपीलार्थी को नियत समय के भीतर समुचित प्रतिकर भी न दिए जाने के विरुद्ध रिट याचिका की पोषणीयता एवं उपचार । 

निर्णयसार - यद्यपि सम्पत्ति का अधिकार भारत के संविधान के भाग ।।। के अन्तर्गत संरक्षित अब ( 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम , 1978-20-6-1979से ) एक मूल अधिकार नहीं है , फिर भी अनुच्छेद 300 क के अन्तर्गत शक कीमती संविधानिक अधिकार ( a valuable consti 301tutional righty है । विधि के प्राधिकार के बिना लॉटरी व्यक्ति को उसके सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है या उसके उपयोग को विनियिमित नहीं किया जा सकता है ( राजस्थान राज्य बनाम बसंत नहटा 2005 ) 12 एस सी सी 77 ) । तदनुसार सरकार याची की भूमि वापस करने और 33 वर्षों से उसके भूमि पर काबिज रहने के एवज में प्रतिकर देने के लिए निर्देशित।

2. स्किल लोट्टो सॉल्यूशन्स प्रा . लि . बनाम भारत संघ और अन्य 

स्रोत - रिट याचिका ( सिविल ) संख्या 961 वर्ष 2018 निर्णय तिथि -03 दिसम्बर , 2020 । RUICE - ULT ( 2020 ) SCJ 16 AIR 2020 SC 870 ( online )

 पूर्णपीठ - अशोक भूषण , आर . सुभाष रेड्डी और एम . आर . शाह , न्यायमूर्तिगण । 

प्रावधान -अनुच्छेद 32,14,19 ( 1 ) ( छ ) , 301 और 304 - क्या पंजाब राज्य द्वारा संयोजित अपीलार्थी कम्पनी द्वारा किए जा रहे लॉटरी के विक्रय और वितरण पर केन्द्रीय वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम , 2017 के धारा 2 ( 52 ) के अर्थान्वयन में कर लगाया जाना अनुच्छेद 14 और 19 ( 1 ) ( छ ) , 301 और 304 का उल्लंघन करता हैं ? तदनुसार याचिका की पोषणीयता । 

निर्णयसार - संविधान ( 101 वाँ संशोधन ) अधिनियम , 2016 के द्वारा संविधान में जोड़े गए अनुच्छेद 246 क , 269 क और 279 क के प्रभाव में संसद द्वारा निर्मित केन्द्रीय वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम , 2017 ( अधिनियम संख्या 12 वर्ष 2017 ) , जो दिनांक 12.04.2017 से प्रवृत्त है , के धारा 2 ( 52 ) में दी गई वस्तु की परिभाषा के अन्तर्गत ' लॉटरी ' एक अनुयोज्य दावा ' के रूप में माना जायेगा , तदनुसार केन्द्र सरकार लॉटरी के विक्रय और वितरण पर वस्तु एवं सेवा कर लगाने में सक्षम एवं सशक्त नहीं होता है । तदनुसार याचिका निरस्त ।

3.सौरव यादव और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 
एस . एल . पी . ( सिविल ) संख्या 23223 वर्ष 2018 में विविध आवेदन संख्या 2641 वर्ष 2019 ( साथ में रिट याचिका ( सिविल ) संख्या 237 वर्ष 2020 ) । 

निर्णय तिथि -18 दिसम्बर , 2020

पूर्णपीठ - उदय उमेश ललित , एस . रवीन्द्र भाट और हृषिकेश राय , न्यायमूर्तिगण । 

प्रावधान- ( अनुच्छेद 16 ( 1 ) और 15 ( 3 ) तथा अनुच्छेद 16 ( 4 ) -महिलाओं , शारीरिक रूप से विकलांग इत्यादि के पक्ष वदत्त क्षैतिज आरक्षण तथा एस सी , एस टी और ओ बी सी वर्ग को उपलब्ध लम्बवत् आरक्षण में संघर्ष की स्थिति में चयन का विकल्प अर्थात् अपनायी या लागू किए जाने वाले आरक्षण की व्यवस्था , प्रकृति एवं विशेषताएं । ( i ) अनुच्छेद 16 ( 1 ) और 15 ( 3 ) तथा 16 ( 4 ) -यदि आरक्षित श्रेणी की कोई महिला जो आरक्षण कोटे का दावेदार है , एक खुली प्रतियोगिता परीक्षा में सामान्य वर्ग की चयनित महिला से अधिक अंक प्राप्त करती है , किन्तु वह चयन से बाहर हो जाती है , क्योंकि वह आरक्षित श्रेणी का दावेदार थी और उसऔर पिछड़ा श्रेणी का कट - ऑफ सामान्य श्रेणी के कट - ऑफ से अधिक था , तब क्या वह अपने मेरिट के आधार पर अनारक्षित श्रेणी में चयनित होने का दावा कर सकती है ? 

निर्णय सार- ( 1 ) अनुच्छेद 16 ( 4 ) के अन्तर्गत वर्ग को प्रदत्त आरक्षण को लम्बवत आरक्षण ( सामाजिक ) और अनुच्छेद 16 ( 1 ) और 15 ( 3 ) के अन्तर्गत शारीरिक रूप से दिव्यांग या महिलाओं इत्यादि के लिए । आरक्षण को क्षतिज आरक्षण ( विशेष ) कहा जा सकता है । क्षैतिज आरक्षण लम्बवत् आरक्षण को सीधे काटता है - जिसे इन्टरलॉकिंग आरक्षण कहा जाता है । ऐसे पिछड़ा वर्ग का अभ्यर्थी अनारक्षित पदों के लिए स्पर्धा कर | सकता है और यदि वे अपने मेरिट के आधार पर अनारक्षित पद पर नियुक्त होते हैं , तब उनकी संख्या को सम्बन्धित पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित कोटा के विरुद्ध गवाना ( काउंट ) नहीं किया जायेगा ...... पूरा आरक्षित कोटा अप्रभावित रहेगा और खुली प्रतियोगिता में चयनित उम्मीदवार के आलावा वह उपलब्ध रहेगा ( इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ ( 1992 ) 3 एस सी सी 217 Suppl . का निर्णय ) , किन्तु लम्बवत् आरक्षण को लागू ऊपर्युक्त सिद्धान्त क्षैतिज आरक्षण को लागू नहीं होंगे । ( 2 ) अनारक्षित श्रेणी ( open categori ) कोई कोटा नहीं होता है , बल्कि वास्तव में यह सभी महिला और पुरुष के लिए एक समान रूप से उपलब्ध रहता है । पुरुषों के लिए कोई कोटा नहीं होता है । 3 ) ऊपर्युक्त के बिचार में , इस मामले में , अन्य पिछड़ा वर्ग के वे , महिला अभ्यर्थी , जिन्होंने सामान्य / खुला श्रेणी अन्तिम चयनित उम्मीदवार द्वारा प्राप्त अंक अर्थात् 274.8928 , से अधिक अंक प्राप्त किया है , को उत्तर प्रदेश सिपाही भर्ती में नियोजित किया जाय और उनके इस चयन से रिक्त हुए उनके सीट को उसी वर्ग के निम्नतर अंक प्राप्त करने वाले अभ्यर्थी से भरा जाय । तदनुसार आदेशित / निर्देशित ।

4.प्रदीप कुमार संथालिया बनाम धीरज प्रसाद साहू @ धीरज साहू और एक अन्य 

स्रोत - सिविल अपील संख्या 611 वर्ष 2020 ( साथ में सिविल अपील संख्या 2159 वर्ष 2020 ) ।

निर्णय तिथि -18 दिसम्बर 2020.

पूर्णपीठ - मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस . ए बाबड़े और एस . बोपन्ना एवं वी . रामासुब्रमनियम , न्यायमूर्तिगण ।

प्रावधान -अनुच्छेद 191 ( 1 ) ( ङ ) , 193 और 80 ( 4 ) यदि एक विधान सभा सदस्य , जिसने राज्य सभा के चुनाव में अपने मताधिकार के प्रयोग में प्रातः 9:15 बजे मतदान किया और उसी दिन दोपहर बाद लगभग 2:30 बजे तक न्यायालय ने उसे दोषसिद्ध करते हुए अनेक अपराधों के लिए सजा दिया जिनमें दो वर्ष से अधिक के कारावास का भी दण्ड था और चुनाव परिणाम उसी दिन रात 12 बजे के बाद घोषित किया गया तब क्या विधायक को सदन के निर्योग्य मानते उसके मतदान को निरस्त किया जा सकता है ?

 निर्णयसार - विधान सभा सदस्य श्री अमित कुमार महतो के द्वारा दिनांक 23.03.3018 को प्रातः 9:15 बजे दिए गए मत को ठीक ही एक वैध मत माना गया था , क्योंकि अनुच्छेद 191 ( 1 ) ( ङ ) सपठित धारा 8 ( 3 ) जनप्रतिधित्व अधिनियम के बिचार में , दोषसिद्धि दोषसिद्ध एवं दण्डादिष्ट किया गया , न कि उस तिथि के प्रारम्भ के समय अर्थात् 12 : 1 AM बजे से । तदनुसार अपील निरस्त। 

5.बालाजी बलीराम मुपाड़े और एक अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य 

स्रोत - सिविल अपील संख्या 3564 वर्ष 2020 ( @ एस एल पी ( सिविल ) संख्या 11626 वर्ष 2020 ) । 

निर्णय तिथि -29 अक्टूबर , 2020

खण्डपीठ - संजय किशन कौल और हृषिकेश राय , न्यायमूर्तिगण । 

प्रावधान - अनुच्छेद 21- ( i ) क्या बहस समाप्त होने के तिथि से 9 महीने बाद निर्णय सुनाये जाने से सम्बन्धित व्यक्ति के किसी मूल अधिकार का उल्लंघन होता है ? ( ii ) अतिविलम्ब से निर्णय सुनाए जाने पर याची को उपलब्ध उपचार । 

निर्णय सार - अनिल राय बनाम बिहार राज्य ( 2001 ) 7 एस सी सी 318 में स्थापित विधि के बिचार में न्याय प्रदान में विलम्ब भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है । तदनुसार निर्णय घोषित किए जाने के लिए जारी दिशा - निर्देश के तहत उच्च न्यायालय के द्वारा आरक्षित रखे गए निर्णय को सामान्यतया बहस पूरा हो जाने की तिथि से दो महीने के भीतर घोषित कर दिया जाय । तीन महीने के बाद भी निर्णय न सुनाए जाने पर पक्षकार उच्च न्यायालय में इस आशय का आवेदन कर सकता है कि निर्णय शीघ्र घोषित किया जाय और 6 महीने बाद उच्च न्यायालय में आवेदन दिया जा सकता है कि मामले को फिर से सुनकर निर्णय घोषित किया जाय । तदनुसार इस मामले में , 9 महीने बाद भी उच्च न्यायालय के द्वारा आरक्षित निर्णय घोषित न किए जाने पर नये पीठ द्वारा मामले को सुनकर निर्णय घोषित किए जाने हेतु निर्देशित।


6.इन रीः प्रशान्त भूषण और अन्य 

स्रोत - स्वप्रेरणा अवमानना याचिका ( दा . ) संख्या 1 वर्ष 2020

निर्णय तिथि -31 अगस्त , 2020 ।


पूर्णपीठ - अरुण मिश्रा , बी . आर . गवई और कृष्ण मुरारी , न्यायमूर्तिगण । 

प्रावधान - अनुच्छेद 129 और 142 - उच्चतम न्यायालय की अवमानना के लिए दोषी घोषित अवमानकर्ता को दण्डित किया जाना । 

निर्णय सार - अवमानकर्ता ट्वीटर पर अपने कथित ट्वीट के द्वारा इस न्यायालय की अवमानना करने का दोषी पाया गया है , फिर भी दण्डादेश से बचने के लिए उसे अपने कृत्यों पर खेद प्रकट करने का अनेक अवसर दिया गया , किन्तु उसने इससे बचने का प्रयास किया । यदि अवमानकर्ता के कृत्यों पर संज्ञान नहीं लिया जाता तो इससे अधिवक्ताओं एवं वादकारियों में गलत संदेश जायेगा इसलिए , अवमानकर्ता पर यह न्यायालय दण्डस्वरूप एक रुपये का जुर्माना अधिरोपित करती है , जिसे रजिस्ट्री में 15.09.2020 तक जमा कराया जाय , जिसमें विफल रहने पर अवमानकर्ता तीन माह तक साधारण कारावास भुगतेगा और उसके बाद इस न्यायालय में प्रेक्टिस करने से तीन वर्ष तक वंचित रहेगा । तद्नुसार आदेशित ।


सोमवार, 2 अगस्त 2021

Difference between Parole, Probation, and Bail

Parole :-


Parole is the release of the prisoner and will be a temporary release. It has certain conditions before the completion of the maximum sentence period. This term is associated at the time of Middle Ages with the release of prisoners who had given their word.

 

It refers to the period of time after a defendant is freed from prison. An offender on parole would face many of the same rules or precautions as probation. Conditions for parole might include demanding the offender to stay in middle house or continuing with payment of fines and other financial responsibilities.

Parole is always granted to those people who have been imprisoned for a particular time period. It follows stringent rules to the letter, or they can be returned to custody with extra time for the violation of the parole.

They are required to visit their parole officer on a regular basis and have to pay for his or her services. In certain cases, being even a minute or two late will be considered as a violation. A few have been returned to custody for the violation of parole when they have a traffic infringement, although it is not common at all.

An additional function of Parole is to try to reintegrate offender into society. Probation or parole can be amended or changed depending on the nature of their offense and conditions of Probation.

Probation :-

Probation means a period of time before a person is actually sent to a prison or a jail.

Instead of pronouncing the sentence and send to jail the judges gives an opportunity for defendants to show that they want to assimilate themselves when defendants receive probation.

Parole can be described as early release from prison conditionally, served in the community and must also follow to specific conditions.

Probation is reported to a Probation officer. Probation mostly is given to first-time offenders and nonviolent crimes. Probations are revoked by Judge.

Bail :-
Bail is defined as money or some form of property which is deposited in a court. It is a security used for the release of a suspect who has been arrested from custody and there will be a condition that the suspect will return for their trial and in the court appearances.

Bail is used for the release of suspects from imprisonment pre-trial. It ensures their return for the trial. If the suspects do not return to the court, the bail will be forfeited, and the suspect will be brought up based on charges of the crime. When the suspect returns with making all their required appearances, bail will be returned after the trial is settled. There are cases in which the bail money is returned at the end of the trial.

Bail is provided before a trial as it allows the person who is charged with a crime to be released from the jail until the trial date. The cost of the bail is determined by the judge. It is necessary that one has to pay 10% of the bail amount, and also the bail bondsman will negotiate it. There will be a full payment is due for the circumstances called for it.

बुधवार, 22 जनवरी 2020

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (Natioanl Population Register - NPR)

हम भारत्त के लोग से अभिप्राय, भारत की जनता  अर्थात भारत के नागरिकों से हैं। भारत अपने नागरिकों को घुसपैठियों से अलग परिभाषित , चिन्हित , और प्रतिष्ठित करता है;
 वे विधियाँ ;  नागरिकता अधिनियम,१९५५ (कई बार संशोधित),
                    विदेशी अधिनयम, १९४६
                    पासपोर्ट अधिनयम, १९२० हैं।

भारत में रहने वाला प्रत्येक गैर - नागरिक एक घुसपैठिया या अवैध प्रवासी है, अगर वह एक पर्यटक या राजनायिक नहीं है।
विदेशी अधिनियम के अनुसार भारत के सभी घुसपैठियों या अवैध प्रवासियों को निष्कासित करना सरकार का कर्त्तव्य है।  अवैध प्रवासियों या घुसपैठियों का अनुमान लगन उतना ही उपमेयमन है जितना अर्थ-व्यवस्था में काले  धन के प्रचलन का अनुमान लगाना है, जबकि दोनों ही भारतीय व्यवस्था में मौजूद हैं।

इस कहानी की शुरुआत वर्तमान परिवेश में तब हुई जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने  नागरिकता ( संशोधन ) अधिनयम ,२०१९ के चर्चा के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर नागरिकों का रजिस्टर ( NRC ) के प्रावधान लेन की घोषणा की।
नागरिकता ( संशोधन ) अधिनियम,२०१९ के विरोध में कई जगह पर कई स्थानों पर विरोध (हिंसक) प्रदर्शन जारी है। इसी के साथ राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के अद्यतन (updation) पर विवाद छिड़ गया।  पश्चिम बंगाल और  केरल सरकारों ने  राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के अद्यतन (updation)  कार्य को स्थागित करने की घोषणा की हैं। अब घटनाओं  की यह प्रक्रिया गैर - बीजेपी शासित राज्यों ने भी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के अद्यतन (updation) की प्रक्रिया का विरोध शुरू कर दिया है।  राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के अद्यतन (updation) की प्रक्रिया कई उलझनों में रह गयी है , समय के साथ जनगणना के लिए गिनती तेजी से शुरू हो गयी है। जनगणना के साथ ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के अद्यतन (updation) का डाटा भी डोर टू डोर चरण प्रक्रिया के द्वारा की जानी है।


क्या हाल  ही पारित नागरिकता ( संशोधन ) अधिनियम, २०१९ (CAA) राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) से सम्बंधित है ?

इसका  जवाब हाँ या नहीं दोनों हो सकते है। इसका सीधा सम्बन्ध नहीं है यह इस पर निर्भर करता है कि  सरकार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के लिए एकत्रित डाटा का उपयोग किस प्रकार करती है जिसकी वर्तमान समय में कोई घोषणा नहीं की गयी है।   




                      राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (Natioanl Population Register - NPR)

 राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) देश के सामान्य निवासियों  का रजिस्टर है। यह नागरिकता अधिनियम, १९५५ और नागरिकता ( नागरिकों का  पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र ) नियम, २००३ के प्रावधानों के तहत स्थानीय (local) ( ग्राम/उप-टाउन ), उप-जिला, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर तैयार किया जा रहा है।
भारत के प्रत्येक सामान्य निवासी को NPR में पणिकरान करना अनिवार्य है। एक सामान्य निवासी को NPR के उद्देश्यों के लिए परिभाषित किया जाता है, जो पिछले ६ महीने या उससे अधिक समय में स्थानीय क्षेत्र में रहता है या एक व्यक्ति जो अगले महीने या उससे अधिक  समय तक उस क्षेत्र में निवास करने का इरादा रखता है।

उद्देश्य :- NPR का उद्देश्य भारत के हर निवासी का राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक राष्ट्रीय पहचान डेटाबेस तैयार करना है।  डेटाबेस में जनसांख्यिकी के साथ-साथ बायोमैट्रिक विवरण शामिल  होंगे।

प्रत्येक सामान्य निवासी के लिए निम्नलिखित जनसांख्यिकी विवरण आवश्यक हैं।
१. व्यक्ति का नाम
२. घर के मुखिया से रिश्ता
३. पिता का नाम
४. माता का नाम
५. पति का नाम (यदि विवाहित है )
६. लिंग
७. जन्म-तिथि
८. वैवाहिक स्थिति  
९. जन्म-स्थान
१०. राष्ट्रीयता (घोषित के रूप में )
११. सामान्य निवास का वर्तमान पता
१२. वर्तमान पते पर रहने अवधि
१३. स्थायी निवास पता
१४. व्यवसाय/गतिविधि
१५. शैक्षणिक योग्यता



राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) के लिए सर्वप्रथम डाटा २०१० में भारत की जनगणना के गृह -गृह चरण व्यवस्था के साथ एकत्र किया गया।  इस डाटा का अद्यतन ( updation ) २०१५ के दौरान डोर-टू-डोर सर्वे करके किया गया था। अद्यतन (upadate ) जानकारी का डिजटलीकरण पूरा हो गया है।
अब असम को छोड़कर सभी राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों में अप्रैल-सितम्बर २०२० के दौरान जनगणना - २०२१ के गृह-गृह चरण के साथ राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) को अद्यतन ( update ) करने का निर्णय लिया गया है। इस आशय की राजपत्र अधिसूचना केंद्र - सरकार द्वारा पहले ही प्रकाशित की जा चुकी है।


राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) और नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर ( NRC ) की वैधानिकता -


१९५५ के नागरिकता अधिनियम में  संशोधन कर उसमे एक  नई धारा 14a जोड़ी गयी।  जो राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने से सम्बंधित है।

नागरिकता अधिनियम की धारा 14a:-

       राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना-
(१) केंद्र सरकार अनिवार्य रूप से भारत के प्रत्येक नागरिक को पंजीकृत कर सकती है और उसे राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी कर सकती है।
(2) केंद्र सरकार भारतीय नागरिकों के एक राष्ट्रीय रजिस्टर को बनाए रख सकती है और इस उद्देश्य के लिए एक राष्ट्रीय पंजीकरण प्राधिकरण की स्थापना करती है।
(३) नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, २००३ के प्रारंभ होने की तारीख से, रजिस्ट्रार जनरल, भारत, बर्थ एंड डेथ्स एक्ट, १ ९ ६ ९ के पंजीकरण की धारा ३ की उप-धारा (१) के तहत नियुक्त (१ from) 1969) राष्ट्रीय      पंजीकरण प्राधिकरण के रूप में कार्य करेगा और वह नागरिक पंजीकरण के रजिस्ट्रार जनरल के रूप में कार्य करेगा।
(4) केंद्र सरकार ऐसे अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों को नियुक्त कर सकती है, जो अपने कार्यों और जिम्मेदारियों के निर्वहन में रजिस्ट्रार जनरल ऑफ सिटीजन रजिस्ट्रेशन की सहायता के लिए आवश्यक हो सकते हैं।
(५) भारत के नागरिकों के अनिवार्य पंजीकरण में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित की जाएगी।

यह प्रक्रिया नागरिकता ( नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र ) नियम, २००३ के नियम ३(४) और नियम ४(१) के अनुसार होंगे।



जनगणना ( Census ) और  राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ):-

भारत में जनगणना निर्णायक है। इसमें भारत की जनसंख्या के बारे में सामान्य डाटा एकत्रित करने के उद्देश्य के रूप में एक विस्तृत प्रश्नावली शामिल है। २०२१ की जनगणना में प्रगणक को लाइन क्रमांक, भवन संख्या, जनगणना मकान नम्बर, जनगणना मकान में फर्श, दीवार और छत में प्रयुक्त सामग्री, जनगणना मकान के उपयोग का पता ( वास्तविक आदि ), आयु, लिंग, वैवाहिक स्थिति, व्यवसाय, धर्म, जन्म-स्थान, विकलांगता, मातृभाषा और यदि वे अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति वर्ग जैसे  ३४ विवरण / प्रश्न शामिल होंगे।

NPR प्रक्रिया व्यक्तियों / नागरिकों के जनसांख्यिकीय और बायोमैट्रिक विवरण को एकत्रित करती है। NPR और जनगणना ( census ) दोनों प्रक्रियाओं में डोर टू डोर गणना शामिल है। लेकिन NPR इस  जनगणना से अलग है क्यूंकि इसका उद्देश्य भारत में  रहने वाले  निवासियों का राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक पहचान डाटा बेस तैयार करना / रखना है।  जनगणना ( census ) व्यक्तियों की पहचान नहीं करती हैं।  हालाँकि जनगणना २०२१ में, यह अंतर नाममात्र भी नहीं होगा क्यूंकि सरकार द्वारा मोबाइल फोन एप्लीकेशन ( Mobile phone application ) के माध्यम से इसे संचालित  करने की योजना बनाई गयी है।


इसके अलावा भारत के रजिस्ट्रार जनरल के तहत जनगणना के आंकड़े केंद्र द्वारा रखे और बनाये जाते है, लेकिन NPR में डाटा एकत्र होने के बाद इन विवरण को ग्राम, वार्ड,  तहसील, जिला और राज्य  स्तर पर जनसंख्या रजिस्टर में रखा और बनाये रखा जायेगा ; साथ ही केंद्रीय स्तर  पर सभी आंकड़ों के साथ राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) का गठन किया जायेगा। 


आधार ( UID ) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ):-

आधार ( UID ) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) दोनों प्रतिद्वंदी योजनाओ की शुरुआत डॉ. मनमोहन सिंह की UPA सरकार के काल में हुई।  जब सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) प्रक्रिआ शुरू की तब पी. चिंदबरम  केंद्रीय गृहमंत्री थे जिन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) योजना को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया।

आधार ( UID ) सेवा / प्रक्रिया को तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा संचालित किआ जा रहा था। बाद में प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद वित्त मंत्रालय पी. चिंदबरम को स्थानांतरित / प्राप्त हो गया।  जिससे आधार ( UID ) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) प्रतिद्वंदता का अंत भी हुआ।
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ( NPR ) और आधार ( UID ) दोनों योजनायें समवर्ती रूप से जनसांख्यिकी  और बायोमैट्रिक डाटा एकत्रित कर रही थी , प्रारम्भ में दोनों योजनाओ ने अपने उद्देश्य के रूप में  लोगों को लाभ और सेवाओं की बेहतर और लक्षित वितरण किया।  UIDAI ( भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ) और गृहमंत्रालय के कार्यों को संसाधनों के दोहराव और और अपव्यय  देखा गया।
हालाँकि यह विवाद UIDAI ( भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ) और गृहमंत्रालय के बीच एक समझौते पर समाप्त हुआ , जहाँ यह निर्णय लिया गया था कि NPR और UID डेटाबेस का इस्तेमाल विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जायेगा।  आधार ( UID ) कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करेगा और NPR का उपयोग शासन के अन्य उद्देश्यों के लिए किया जायेगा।
यह भी तय किया गया कि  आधार के लिये पहले से नामांकित लोगों  को अपने बायोमैट्रिक विवरण देने की जरूरत नहीं है। 



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अन्य:-  CAA और NRC
       
             असम NRC

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिकता - रजिस्टर (NRC)

         नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिकता - रजिस्टर (NRC) 



CAA  और NRC दोनों अलग विधि हैं। CAA संसद द्वारा निर्मित विधि है।  जबकि NRC के सन्दर्भ में विधि एवं उससे सम्बन्धित प्रक्रिया निर्माण अभी शेष है। असम और राष्ट्र व्यापी NRC में कोई भी सम्बन्ध नहीं है। असम  में जो NRC लागू  किया गया , वह '' असम  समझौते '' और माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश अनुसार तैयार की गयी और प्रवर्तनीय की गई।  

किसी भी धर्म सम्भाव के व्यक्ति को CAA  और NRC से परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। 

NRC के सन्दर्भ में बनायीं जा रही विधि और प्रक्रिया का किसी भी धर्म से कोई सरोकार नहीं है।  यह भारत के सभी नागरिकों के लिए सामान रूप से होगा; NRC नागरिकों का एक प्रकार का रजिस्टर होगा जिसमें  देश के सभी नागरिकों  को अपना नाम दर्ज़ / अंकित कराना होगा। 

NRC का आधार धार्मिक - निरपेक्षता होगा। NRC जब भी प्रवर्तनीय कराया जायेगा तो वह धार्मिक आधार पर प्रवर्तनीय / लागू नहीं किया जायेगा। किसी भी नागरिक को सिर्फ इस आधार पर बाहर नहीं किया जा सकता है कि  वह किसी विशेष धर्म के प्रति सद्भावना रखता है। 


सर्वलौकिक है कि अभी राष्ट्रीय स्तर पर NRC जैसा कोई प्रावधान लागू नहीं किया गया है और न ही इसकी औपचारिक घोषणा की गयी है, और न ही इसके सन्दर्भ में कोई विधि निर्मित की गयी है। अगर आने वाले समय में कोई प्रावधान लाया जाता है तो वह सभी भारतीय नागरिकों  के लिया सामान होंगे।



असम NRC और १९७१ से पहले की वंशावली का प्रस्तुतीकरण :-

असम की  समस्या को पूरे देश से जोड़ना ठीक नहीं है। वहां घुसपैठियों की समस्या लम्बे समय से चली आ रही थी। इसके विरोध में वहां ५-६  वर्षों तक आंदोलन और संघर्ष चला। इस घुसपैठ की समस्या की वजह से तत्कालीन  राजीव गाँधी सरकार को १९८५ में समझौता करना पड़ा था। इसके तहत घुसपैठियों की  पहचान के लिए २५ मार्च १९७१ को कट ऑफ़ डेट मन गया ; जो NRC का आधार बना। 
जिसमे १९७१ से पहले के वंशावली को प्रस्तुत करना था जो कि  असम समझौता और माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश के आधार पर था। 
असम  NRC और १९७१ से पहले की वंशावली का प्रस्तुतीकरण, राष्ट्र - व्यापी NRC से कोई सम्बन्ध नहीं है।  

१९७१ से पहले की वंशावली का प्रस्तुतीकरण-  ऐसा बिलकुल नहीं है १९७१ से पहले की वंशावली के लिए किसी को भी किसी प्रकार के दस्तावेज / प्रमाण-पत्र को प्रस्तुत करने कीआवश्यकता नहीं है। यह केवल असम NRC के लिए मान्य था वह भी ''असम समझौता '' और माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर। देश के शेष हिस्सों के लिए The citizenship (Registration of citizens and Issues of National Identity cards) Rule, 2003 के अनुसार NRC की प्रक्रिया पूरी तरह से अलग है। 


नागरिकता के सन्दर्भ में प्रावधान:-  

नागरिकता नियम २००९के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की नागरिकता किस प्रकर निश्चित की जाएगी, यह प्रावधान नागरिकता अधिनियम, १९५५ के आधार पर बना है। यह नियम सार्वजनिक  रूप से सभी के लिए सामान है। 

नागरिकता के आधार / तरीके:- 

                                        १. जन्म के आधार पर 
                                        २. वंश के आधार पर 
                                        ३. पंजीकरण के आधार पर 
                                        ४. भूमि विस्तार के आधार पर 
                                        ५. देशीयकरण के आधार पर 


स्वीकार्य दस्तावेज / प्रमाण-पत्र:-

हालाँकि इस सन्दर्भ में अभी स्वीकार्य दस्तावेजों की सूची की औपचारिक घोषणा नहीं हुई है। परन्तु इस सन्दर्भ में रिफ्यूजी प्रमाण-पत्र, मतदाता पहचान-पत्र, पासपोर्ट, आधार कार्ड, लाइसेंस, जन्म प्रमाण-पत्र,घर / भूमि के कागजात, बीमा के कागजात, या फिर इसी प्रकार के अन्य सरकारी दस्तवेजों को शामिल किये जाने की संभावना है। स्वीकार्य दस्तावेजों की लम्बी होने की संभावना है जिससे कि  किसी भी भारतीय नागरिक को परेशानी न हो। 

दस्तावेज न होने की स्थिति में:- 

पहचान साबित करने के लिए बहुत सामान्य दस्तावेज की जरूरत होगी। राष्ट्रीय स्तर  पर NRC की घोषणा होती है तो सर्कार ऐसे नियम और निर्देश तय करेगी जिससे किसी को परेशानी न हो। 
विधि निर्माताओं की यह मंशा बिलकुल नहीं है कि वह अपने नागरिकों को परेशान करें। 
दस्तावेज न होने की स्थिति में अधिकारी उस व्यक्ति को गवाह लेन की अनुमति देगा; साथ ही अन्य सबूतों और सामुदायिक प्रमाणीकरण आदि की अनुमति देंगे। एक उचित प्रक्रिया का पालन किया जायेगा। किसी भी भारतीय नागरिक को अनुचित परेशानी में नहीं डाला जा सकता। 
ऐसे लोग जो जो पढ़े - लिखे नहीं है, घर नहीं है, दस्तावेज नहीं है, गरीब है, और उनके पास पहचान का कोई आधार नहीं है; ऐसे लोग किसी न किसी आधार पर वोट डालते है और उन्हें सरकार की किसी न किसी कल्याणकारी योजना का मिला है उसी के आधार पर पहचान स्थापित की जाएगी। 



                                                          - आशुतोष सिंह 
                                                            




  

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

ANTICIPATORY BAIL : SECTION 438 CRIMINAL PROCEDURE CODE,1973

                                                                What is Bail?

When you are arrested, you are taken into custody. This means that you are not free to leave the scene. Without being arrested, you can be detained, however, or held for questioning for a short time if a police officer or other person believes you may be involved in a crime.



                                                    What is Anticipatory Bail?


If a person believes that he may be arrested for non-bailable offences, he may apply to the High Court or Court of Session for Anticipatory Bail i.e, in the event of arrest, he shall be released on bail. While granting anticipatory bail, the court may impose a certain condition in the interest of justice and to ensure that no obstructions are created on the path to justice. The accused may have to take the permission of the court before leaving the country. The anticipatory bail is valid during the whole proceeding of the case unless cancelled earlier.



                                                            Which Section?

Section 438 of the Criminal Procedure Code empowers the High Court and the Session - Court to grant Anticipatory Bail i.e, a direction to release a person on bail issued even the person is arrested.


                                                          What Consideration?

*  nature and gravity of the accusation.
* ThThee antecedents of the applicants including the facts as to whether he has previously undergone imprisonment on conviction by a court in respect of any cognizable offence.
* The possibility of applicants fleeing from justice.
* Whether the accusations have been made within a view to injuring or humiliating the application.
* Whether there is a reason to believe that the petitioner may be arrested on an accusation of having committed to the non-bailable offence; and
* Whether it thinks fit that in the event of such arrest, he could be released on bail and also it may impose such conditions on the order, as it may think fit, in the light of the particular case.


                                                          What Condition?

* A condition that the person shall make himself available for interrogation by a police officer as and when required;
* A condition that the person shall not, directly or indirectly, make any inducement, threat or promise to any person acquainted with the facts of the case so as to dissuade him from disclosing such facts to the Court or to any police officer;
* A condition that the person shall not leave India without the previous permission of the Court.
* Such other conditions as may be imposed.


                                                   Which is Competence Court?

Under section 438 only the High Court & The Court of Session have been the jurisdiction to entertain an application for Anticipatory Bail. The next issue for consideration regarding jurisdiction under section 438 is as to whether the accused is supposed to move the Court of Session before applying to the High Court. The words used in the provision are 'High Court or the Court of Session'. Ordinarily, a matter is brought before the lowest court competent to hear it and therefore an application of Anticipatory bail may be made to the high court only after the court of session rejects it.
Under the provision, both courts are empowered to pass an order under section 438. The petitioner may choose one of the two courts and apply to the court of his choice.


                                                                When?

When any person apprehends that there is a move to get him arrested on false or trump upcharge, or due to enmity with someone, or he fears that a false case is likely to be built up against him. He has the right to move the Court of Session or High Court under section 438 of the Criminal Procedure Code for grant of bail in the event of his arrest, and the court may if it think fit, direct that in the event of such arrest, he shall be released on bail.


                                                       What discretion?


The Court has been given a wide discretion while deciding on such application because it is legislatively impossible to lay down all the possible cases where Anticipatory bail may be granted. Therefore, it is but natural that such competence is given only to the higher judiciary. As more experienced and more competent judges preside over such courts, it was intended this would act as a safeguard against any abuse of such powers in the favour of a connected accused.



Muzaffar Hussain Khan Vs. The State of Odisha - The applicant was a minister of the state and there was a prima facie case that he had fired a pistol inside a polling booth. He was refused an anticipatory bail on the grounds that there was a likelihood that the confidence of the public being shaken as the investigation may be interfered with if the application was allowed.

Balchand Jain Vs. The State of M.P.- The rule of prudence is that notice must have given to the other side before passing a final order under section 438 So that wrong order of Anticipatory bail is not obtained by a party by placing wrong/incorrect/misleading facts or suppressing material fact.



                                                            Conclusion

The code of Criminal Procedure, 1973 section 438, at the very outset is based on a clear nexus of personal liberty of the individual with the protection granted under the constitution of India Article 21. The law presumes an accused to be innocent till the guilt is proved and this is an important component of the right to a fair trial that an essential ingredient of right to life and personal liberty enshrined in article 21. Keeping in mind all these factors, section 438 seems to be in consonance with the principles enshrined in the Constitution.

जिलाधिकारी (DM) और पुलिस अधीक्षक (SP) के बीच कार्यक्षेत्र और प्राधिकरण के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए संविधान, विधिक प्रावधान और प्रशासनि...