वस्तुतः हिन्दू (Hindu) शब्द किसी जाति या सम्प्रदाय का बोधक नहीं है और न ही यह शब्द किसी विशेष धर्म का वाचक है। हिन्दू कहे जाने वाले व्यक्तियों के आधार तथा रीति रिवाजों में इतना अधिक विरोध है कि हिंदू शब्द के साँस्कृतिक इकाई का बोधक होने की बात अत्यंत आश्चर्यजनक प्रतीत होती है । इस धर्म के अंतर्गत कोई एक ही पैगंबर नहीं हुआ , कोई एक ही देवी - देवता की उपासना नहीं बताई गई है , कोई एक ही मत एवं आस्था का उदय नहीं हुआ । जिससे यह कहा जा सके कि उसमे से किसी एक में विश्वास करने वाला व्यक्ति ही हिंदू है अर्थात् सिंधु घाटी सभ्यता में निवास करने वाले हर व्यक्ति हिंदू कहलाते थे। जबकि हिंदू अधिनियम पारित होने के उपरांत लिन्दू शब्द में व्यापक परिवर्तन हुए अर्थात हिंदू विधि निम्नलिखित व्यक्तियों पर लागू होगी जिसके अंतर्गत वीरशैव , लिंगायत , ब्रह्म समाज , प्रार्थना समाज , आर्य समाज के साथ साथ ऐसा व्यक्ति जो बौद्ध हो , जैन हो , सिक्ख हो उस पर भी हिन्दू विधि लागू होगी । भारत में मुसलमान , ईसाई , पारसी , यहूदी को छोड़कर अन्य कोई है और उसका धर्म निर्धारित नहीं हो पा रहा है तो उसपर हिन्दू विधि लागू होगी । लेकिन मुसलमान , ईसाई , पारसी , यहूदी भी धर्म परिवर्तन करके हिंदू बन सकते हैं।
• हिन्दू विधि के स्रोत – ( sources of Hindu Law )
» हिन्दू विधि के मुख्यतः दो स्रोत है -
1. प्राचीन स्रोत
2. आधुनिक स्रोत प्राचीन स्रोत
प्राचीन स्रोत (Ancient Sources)
इसके अंतर्गत निम्नलिखित चार स्रोत आते हैं । 1. श्रुति
2. स्मृति - मनुस्मृति , याज्ञवलक्य , अर्थशास्त्र , नारद स्मृति , बृहस्पति स्मृति इत्यादि ।
3. भाष्य एवं निबंध
4. रूढ़ि और प्रथा
श्रुति :- श्रुति का अर्थ है सुनना या जो सुना गया है। इसके विषय में यह मत प्रचलित है कि यह वाक्य ईश्वर द्वारा ऋषियो पर प्रकट किए गए थे जो मुख से जिस प्रकार निकले उसी रूप में अंकित है । यह श्रुतिया सर्वोपरि समझी जाती हैं। चार वेद- ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद इसी के अंतर्गत आते हैं ।
स्मृति:- स्मृति का शाब्दिक अर्थ है स्मरण रखा जाना । स्मृतियों में मानवीय प्रवृतियां पाई जाती है । कुछ विद्वानों का मत है कि स्मृलियां उन्हीं ऋषियों द्वारा संकलित की गई थी जिस पर वेद प्रकट हुए अतः उन्हें भी उसी प्रकार प्रमाणित माना जाता है जिस प्रकार हम श्रुतियों को मानते हैं ।
भाष्य तथा निबंध:- हिंदू विधि का विकास अनेक रूपों में विभिन्न स्रोतों द्वारा हुआ जिसके परिणाम स्वरूप स्मृतियों के विधि में अनेक मतभेद , अपूर्णताए तथा अस्पष्टताएं आ गई थी । भाष्यों के अतिरिक्त निबंधों की भी रचना की गई , निबंधों में दूसरी तरफ किसी प्रकरण विशेष पर अनेक स्मृतियों के पाठों को अवतरित करके उस संबंध विधि को स्पष्ट किया गया है । .
रूढि और प्रथा:- व्यक्तिगत विधि में रूढि एवं प्रथाओं को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है जिससे विधि को निर्धारित करने में यह सहायक होती हैं । विधिक अर्थ में प्रथाओं का अभिप्राय उन नियमों से है जो एक समाज वर्ग अथवा परिवार विशेष में माने जाते हैं ।
आधुनिक स्रोत (Modern Sources)
1) न्यायिक निर्णय (Judicial decision):- वे न्यायिक निर्णय जो हिंदू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किए जाते हैं विधि के स्रोत समझे जाते हैं । अब हिंदू विधि पर सभी महत्वपूर्ण बातें विधि रिपोर्ट में सुलभ है । सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं। लेकिन एक उच्च न्यायालय का निर्णय दूसरे उच्च न्यायालय पर बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखते है | ॥
2) विधायन ( अधिनियम ) :- विधि के स्रोत में अधिनियमो का महत्व वर्तमान काल में बहुत अधिक बढ़ गया है । वस्तुतः विधि का यह स्रोत आधुनिक युग के नवीन स्रोतों में आता है अब किसी भी देश में विधि निर्मित करने का अथवा परिवर्तन करने का अधिकार किसी व्यक्ति विशेष को व्यक्तिगत रूप से नहीं प्राप्त है ऐसा अधिकार प्रभु सत्ताधारी को ही प्राप्त है । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 , हिन्दू व्यस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम 1956 , हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 , इसके मुख्य उदाहरण है ।
• हिन्द विधि की शाखाएँ ( School of Hindu law )
हिंदू विधि की निम्नलिखित दो शाखाएं हैं
1. मिताक्षरा शाखा
2.दायभाग शाखा
1. मिताक्षरा शाखा
• मिताक्षरा की पाँच उपशाखाएँ निम्नलिखित है ।
1 ) बनारस शाखा:- पंजाब तथा मिथिला को छोड़कर यह शाखा समस्त उत्तरी भारत में व्याम है , जिसमें उड़ीसा भी सम्मिलित है मध्य भारत की भी स्थानीय विधि हिंदू विधि की बनारस शाखा से प्रशासित है ।
2 ) मिथिला शाखा:- यह शाखा सामान्यतः उत्तरी बिहार में प्रचलित है कुछ विषयों को छोड़कर इस शाखा के विधि मिताक्षरा के विधि है इस बात का समर्थन प्रिवी काउंसिल ने सुरेंद्र बनाम हरिप्रसाद के बाद में किया है ।
3) द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा :- समस्त माला में हिंदू विधि की मात्रामाशांच्या प्रचालित ही पहले यह शासक पक्ति , जाटिका तया आंदा .
4) महाराष्ट्र अथवा बंबई शाखा :- यह शाखा समस्त मुंबई प्रदेश में प्रचलित है जिसमें गुजरात क्षेत्र के साथ - साथ वे प्रदेश में प्रचलित है जहां मराठी बोली जाती है ।
5 ) पंजाब शाखा:- यहां शाखा पूर्वी पंजाब वाले प्रदेश में प्रचलित है इस शाखाओं में प्रयाओं को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है ।
2.दायभाग शाखा
दायभाग हिंदू विधि की एक प्राचीनतम धारणा है जिसका प्रभाव बंगाल में तथा असम के कुल क्षेत्रों में प्रचलित है ।
• मिताक्षरा तथा दायभाग की विधियों में अन्तर
दायभाग शाखा
दायभाग शाखा मे पुत्र का पिता के संपत्ति में अधिकार पिता के मृत्यु के पश्चात बतान्न होता है ।
दाय पारलौकिक लाभ प्राप्त करने के सिद्धांत पर आधारित है ।
फैक्टम बैलेट का सिद्धांत दायभाग में पूर्ण रूप से माना गया है दायभाग समस्त संहिता का एक सार संग्रह है ।
मिताक्षरा शाखा
मिताक्षरा शाखा के अंतर्गत संयुक्त संपत्ति में पुत्र का पिता के पैतृक संपत्ति में जन्म से ही अधिकार हो जाता है । दाय के संबंध में यह सिद्धांत रक्त पर आधारित है ।
फैक्टम वैलेट का सिद्धांत मिताक्षरा विधि में सीमित रूप में माना गया है । इसमें निकट संबधी को उत्तराधिकार के मामले में अधिक महत्व दिया गया है । .
विवाह (Marriage)
विवाह की परिभाषा वर के द्वारा कन्या को स्त्री के रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति ही विवाह है ।
विवाह की 8 पद्धतियां ( विवाह अधिनियम 1955 के पूर्व ) प्रचलित थी, जिसके अंतर्गत चार मान्य पद्धतिया तथा चार अमान्य पद्धतिया है जो निम्नलिखित है ।
मान्य विवाह पद्धतियां -
ब्रह्म विवाह
देव विवाह
आर्ष विवाह
प्रजापत्य विवाह
अमान्य विवाह पद्धतियां-
असुर विवाह
गंधर्व विवाह
राक्षस विवाह
पैशाच विवाह
विवाह एक संस्कार है या संविदा ?
स्मृति काल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है । विवाह जो पहले एक पवित्र बंधन था अब अधिनियम लागू हो जाने के अंतर्गत ऐसा नहीं रह गया है । कुछ विधि विशेषज्ञों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है । अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं बल्कि विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है ।
विवाह हिंदुओं के ऐसे महत्वपूर्ण संस्कारों में ऐसे है जो किसी के लिए भी वर्जित नहीं है, प्रथा सभी जातियों के लिए आवश्यक माना जाता था इस संस्कार के अनुसार स्त्री एवं पुरुष मे एक पुत्र उत्पन्न करने के लिए एकीकरण होता है ।
प्रत्येक हिंदू तीन ऋणों को लेकर उत्पन्न होता है , देवऋण , ऋषि ऋण और पितृ ऋण
इसके साथ ही स्वर्ग की प्राप्ति के लिए , वंश की वृद्धि के लिए तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए विवाह अति आवश्यक है ।
जबकि विवाह संविदा होने का आधार निम्नलिखित है . .
बहु विवाह
विवाह विच्छेद
अंतर जाति विवाह
विवाह की शर्तें
यौन विमारी
जारता
उम्र में परिवर्तन इत्यादि ।
भगवती शरण सिंह बनाम परमेश्वरी नंदर सिंह इस मामले में निर्धारित किया गया की हिंदू विवाहा संस्कार ही नहीं बल्कि एक संविदा
पुरुषोत्तम दास बनाम पुरुषोत्तम दास -इस वाद में निर्धारित किया गया की हिन्दू धर्म में विवाह एक संविदा है और संविदा के फल स्वरुप उसकी संतानों का अस्तित्व है ।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 .विवाह की शर्ते ( धारा 5) हिंदू विवाह के निम्नलिखित शते हैं
• यदि कोई पुरुष है तो उसकी कोई जीवित पत्नी न हो और यदि कोई स्त्री है तो उसका कोई जीवित पति न हो ।
• दोनों पक्षकारों में विवाह करने के लिए आपस में सहमति का होना आवश्यक है ।
• विवाह करने के लिए लड़के की आयु न्यूनतम 21 साल और लड़की की आयु न्यूनतम 18 साल के होनी चाहिए ।
• प्रतिषेध नातेवारी - विवाह अपने सगे संबंधियों के बीच नहीं किया जा सकता है। सपिण्ड नातेदारी -- सपिंड नातेदारी के अंतर्गत आने वाले की पुरुष आपस में विवाह नहीं कर सकते।
प्रतिषेध नातेदारी और सपिंडनातेदारी के अंतर्गत विवाह मान्य होता है यदि उनमे से प्रत्येक को शासित होने वाली रूढि या प्रथा उन दोनों के बीच अनुज्ञान करती हो ।
• कुछ महत्वपूर्ण वाद (Landmark Judgment)
लिली थॉमस बनाम भारत संघ ( 2000 ) इस बाद में पत्नी के रहते हुए भी पति ने दूसरा विवाह कर लिया तथा अपराध से बचने के लिए उसने धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गया । उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि वह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 17 के अंतर्गत तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 494/495 के अतर्गत दोषी है क्योंकि धर्म परिवर्तन करने मात्र से उसका विवाह समाप्त नहीं हो गया है ।
गुलाबिया बनाम सिताविया न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि किसी हिदू ने दूसरा विवाह कर लिया है और उससे संताने भी उत्पन्न हो गई है तो वहा भी धारा 5 ( i ) के अंतर्गत दूसरा विवाह शून्य होगा अतः पति के संपत्ति में दूसरी पत्नी को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा । धारा 5 ( ii ) के अनुसार दोनों पक्षकारों में आपसी सहमति होनी चाहिए . इसके साथ ही दोनों पक्षकार स्वस्थचित हों तथा उनमें से कोई भी पागल न हो ।
अल्का शर्मा बनाम अभिनाश चंद्रा ( 1991 ) इस मामले में न्यायालय ने निर्धारित किया कि दोनों पक्षकार वैवाहिक दायित्व पूर्ण करने तथा संतान उत्पन्न करने में योग्य होने चाहिए तथा न्यायालय ने पत्नी को मस्तिष्क विकृत पोषित कर दिया । धारा 5(iii ) के अनुसार यदि कोई लडका विसी अवयस्क लड़की से विवाह करता है तो वह धारा 18 के अंतर्गत 2 साल की सजा या । लाख जुमनि से दंडित होगा या दोनों से दण्डित होगा । धारा 5 ( iv ) च ( v ) के अंतर्गत क्रमशः प्रतिषध नातेदारी व सपिण्ड नातेदारी के अंतर्गत विवाह मान्य होता है ।
यदि किसी व्यक्ति की एक पत्नी है तो उससे उत्पन्न संतानों पूर्ण रक्त के माने जाएग ।
यदि कोई व्यक्ति दो स्त्रियों से विवाह करता है तो दोनों स्त्रियों से उत्पन्न संतान आपस में अर्धरक्त के होंगे ।
एक ही गर्भाश्य से उत्पन्न संताने एकोदर रक्त के अंतर्गत आते हैं । पिता अलग - अलग हो।
श्रीमती शकुंतला देवी बनाम अमरनाथ मे निर्धारित किया कि रूढ़ियों के आधार पर जो अति प्राचीन हो तथा मानव स्मृति से परे हो उस स्थिति में प्रतिषेध संबंधियों के बीच विवाह हो सकता है यदि यह प्रथा प्राचीन समय से निरंतर चली आ रही हो ।
लक्ष्मण राव नावलकर बनाम मीना नावलकर सपिंड विवाह मान्य हो सकता है यदि उनके बीच मान्य रूढ़ि हो, इस वाद मे पत्नी रूढ़ि को सिद्ध नहीं कर पाई और न्यायालय ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया ।
• हिन्द विवाह के कर्मकांड ( धारा 7 ) :- हिंदू विवाह उसमें के पक्षकारों में से किसी के रूढ़िगत आचारो और संस्कारों के अनुरूप अनुष्ठापीत हो सकेगा । जहां ऐसे आचार और संस्कारों के अंतर्गत सापदी है ( अग्नि के समक्ष वर व वधु को सात फेरे लेने होते हैं । विवाह पूरा और बाध्यकर तब हो जाता है जब सातवा पद पूरा हो जाता है ।
भाऊराव शंकर लोखड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य(1965 )
इस बाद में न्यायालय ने निर्धारित किया कि विवाह उचित रीति एवं संस्कारों द्वारा संपन्न होना चाहिए तथा सप्तपदी द्वारा सातवां फेरा पूर्ण होने पर ही विवाह सम्पन्न माना जायेगा ।
एस . नागालिंगम बनाम शिवागामी न्यायालय ने निर्धारित किया कि सप्तपदी केवल उन्हीं मामलों में लागू होता है जहां विवाह के पूर्व पक्षकार किसी विधि मानता के अंतर्गत समझते हो अन्यथा अन्य रीति - रिवाज से किया गया विवाह भी वैध माना जाएगा ।
• विवाह का रजिस्ट्रीकरण Registration of marriage ( धारा 8 )
इस धारा के अधीन बनाए गए सभी नियमों को उनके बनाए जाने के पश्चात यथाशीघ्र राज्य विधान मंडल के समक्ष रखे जाएंगे। हिंदू विवाह रजिस्टर सम युक्तियुक्त समय पर निरीक्षण के लिए खुला रहेगा और उसमें अन्तरविष्ट वचन साक्ष्य के रूप में ग्राह होंगे और रजिस्ट्रार के यहा आवेदन कर तथा उचित फीस का भुगतान किए जाने पर ही प्रभावी होगा । इस धारा में किसी बात के बीच अंतरविष्ट होते हुए किसी हिंदू विवाह की मान्यता ऐसे प्रविष्टि करने के लोप द्वारा किसी भी तरीके से प्रभावित ना होगी ।
श्रीमती सीमा बनाम अश्वनी कुमार ( 2006 ) विवाह जन्म - मरण सांख्यिकी की तरह होता है जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को चाहे किसी भी धर्म का हो विवाह हुआ है तो उनका रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य होता है ।
दाम्पत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन Restitution of conjugal rights(धारा 9)
जब पति या पत्नी में से किसी ने भी युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना अपने को दूसरे से अलग कर लिया है तब पीड़ित पक्षकार दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए याचिका द्वारा आवेदन दिला न्यायालय में कर सकेगा और न्यायालय ऐसी याचिका में किए गए कथनों के सत्यता के बारे में और इस बात के बारे में आवेदन मंजूर करने का कोई वैध आधार नहीं है अपनी संतुष्टि हो जाने पर तदनुसार दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन के लिए , आज्ञाप्ति हो सकेगा ।
आवश्यक तत्व
जब पति पत्नी में से कोई भी पक्षकार के साथ रहना छोड़ दे।
परित्याग व्यक्ति के तर्कों से पूर्ण संतुष्ट होना चाहिए ।
प्रार्थनापत्र अस्वीकार करने का कोई वैध आधार न हो ।
प्रमिला बाला बारीक बनाम रवीन्द्रनाथ बारीक (1977 )
इस वाद में पत्नी का यह तर्क था कि उसके साथ उसकी सास क्रूरता करती और वह सिद्ध कर देती है . तो पति की पुनर्स्थापन की याचिका खारिज हो जाएगी।
• न्यायिक पृथक्करण Judicial Separation( धारा 10 ) पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति से एक दूसरे से अलग रहने की प्रक्रिया न्यायिक पृथक्करण कहलाती है ।
धारा 10 के अनुसार विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व हुआ हो चाहे उसके बाद हुआ हो जिला न्यायालय में धारा 13 की उपधारा 1 में और पत्नी की दशा में उपधारा 2 के अधीन विनिर्दिष्ट आधारों में से ऐसे आधार पर जिस पर विवाह विच्छेद के लिए भी दी गई है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना कर सकेगा। न्यायिक पृथक्करण एवं विवाह विच्छेद के लिए एक ही आधार है जिसके अनुसार न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करें या विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करें ऐसे मामले के आधार पर और परिस्थितियों के अनुसार किया जाना चाहिए।
• विवाह की अकृतता और विवाह विच्छेद ( धारा 11-18 )
धारा 11 ( शून्य विवाह)
इस अधिनियम के प्रारंभ या पश्चात अनु स्थापित किया गया कोई विवाह इस अधिनियम के धारा 5 ( 1 , iv , v ) में उल्लिखित आधारों में से किसी एक का उल्लंघन करता है तो वह विवाह शून्य होगा और उसमें के किसी भी पक्षकार द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा | शून्य विवाह से आशय है विवाह का कोई अस्तित्व ही नहीं है ।
यमुना बाई बनाम अन्तर राव AIR 1981SC 644
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया हो ऐसे विवाह को किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से प्रवर्तन नहीं करा जा सकता है
संतोष कुमार बनाम सुरजीत सिंह ( 1990 ) इस वाद में कहा गया कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया हो तो दूसरा विवाह शून्य होगा और वह व्यक्ति भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत दंडनीय अपराधी भी होगा।
मीनाक्षी सुंदरम बनाम नंबलवार AIR 1970 मद्रास 402
इस वाद में निर्धारित किया गया कि हिंदू विवाह को प्रतिषेध नातेदारी के आधार पर शून्य घोषित किया जा सकता है यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार अपने समाज के भीतर चलने वाली रूढि और प्रथाओं को सिद्ध नहीं कर पाता है जिनके अधीन प्रतिषेध नातेदारी के भीतर विवाह किए जाने की मान्यता प्राप्त हो
धारा 12 ( शून्य - करणीय विवाह )
कोई विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व या पश्चात अनुस्थापित किया गया है निम्न आधारों में से किसी भी आधार पर शून्य - करणीय घोषित किया जा सकता है ।
(i) नपुंसकता के कारण
(ii) धारा 5 ( ii ) के आधार पर
(iii) यदि सम्मति कपट द्वारा प्राप्त की गई हो । (iv) यदि पत्नी विवाह पूर्व किसी अन्य व्यक्ति से गर्भवती थी ।
Divorce धारा 13( विवाह विच्छेद )
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 ( 1 ) में विवाह विच्छेद के निम्नलिखित आधार हैं।
13 ( 1 ) में वर्णित आधार इस प्रकार हैं प्रत्यर्थी के द्वारा विवाह के बाद जारता ( Adultery ) जिसे सामान्य शब्दों में व्यभिचार कहा जाता है । जब विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार विवाह होने के बाद भी कहीं अन्य जगह अवैध शारीरिक संबंध रखता है तो यह जारता कहलाता है । इस आधार पर विवाह का व्यथित पक्षकार याचिका लाकर प्रत्यर्थी के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करवा सकता है ।
क्रूरता- न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करने हेतु एक मजबूत कारण होता है । क्रूरता को अधिनियम में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है क्योंकि समय परिस्थितियों के अनुसार क्रूरता के अर्थ बदलते रहते हैं । न्यायालय में आए समय - समय पर प्रकरणों में भिन्न भिन्न क्रूरता देखी गई हैं ।
जियालाल बनाम सरला देवी एआईआर 1978 जम्मू कश्मीर 67 में पति ने पत्नी पर आरोप लगाया कि पत्नी की नाक से ऐसी खराब दुर्गंध निकलती है कि वह उसके साथ बैठ नहीं सकता और सहवास नहीं कर सकता और इस कारण विवाह का प्रयोजन ही समाप्त हो गया है तथा पागलपन का आरोप लगाते हुए भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत की और उसे क्रूरता के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचना की गई ।
पत्नी ने आरोपों को अस्वीकार किया । अपील में उच्च न्यायालय ने माना कि क्रूरता के लिए -मंतव्य और आशय जो क्रूरता के लिए आवश्यक तत्व है सिद्ध नहीं हुआ । क्रूरता एक ऐसी प्रकृति का स्वेच्छा पूर्ण आचरण होता है जिससे एक दूसरे के जीवन शरीर अंग के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है । इसमें मानसिक वेदना भी सम्मिलित हैं ।
इस प्रकृति का अकेला एक कार्य भी गंभीर प्रकृति का है तो न्यायिक पृथक्करण के लिए एक पर्याप्त आधार हो सकता है । सामाजिक दशाएं पक्षकारों का स्तर उनके सांस्कृतिक विकास शिक्षा से भिन्नता पैदा होती है क्योंकि कहीं एक कार्य के मामले में क्रूरता माना जाता है वहीं दूसरे मामले में उसी कार्य हेतु वैसा कुछ नहीं माना जाता । कभी - कभी बच्चों या परिवार के रिश्तेदारों के कार्य भी क्रूरता का गठन करते हैं और इससे व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है । जहां पत्नी अपने पति के विरुद्ध अपमानजनक भाषा गाली देने वाले शब्दों का प्रयोग कर रही हो और ऐसा ही आचरण पति के माता - पिता के साथ करके परिवार की शांति भंग कर रही हो वहां उसका आचरण क्रूरता कहलाएगा । जहां सास प्रत्येक दिन पुत्रवधू के साथ दुर्व्यवहार करती है उसका पति इसमें कोई आपत्ति नहीं करता है वहां पत्नी इस अधिनियम के अधीन इस संदर्भ में निवेदित डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी बन जाती हैं । पत्नी के मानसिक परपीड़न को अनदेखा इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई थी ।
सुलेखा बैरागी बनाम कमलाकांत बैरागी एआईआर 1980 कोलकाता 370 के मामले निर्धारित किया गया है कि शारीरिक चोट ही क्रूरता नहीं दर्शाती है अपितु मानसिक चोट भी क्रूरता है। अतः न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु क्रूरता का आधार एक महत्वपूर्ण आधार है ।
धर्म परिवर्तन द्वारा यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाता है तो ऐसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु न्यायालय के समक्ष आवेदन कर सकता है ।
पागलपन यदि विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार पागल हो जाता है या असाध्य मानसिक विकृतचितता निरंतरता के मनोविकार से पीड़ित हो जाता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/विवाह विच्छेद के लिए आवेदन न्यायालय के समक्ष कर सकता है ।
संचारी रोग से पीड़ित होना यदि विवाह का पक्षकार किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित है तथा बीमारी ऐसी है जो संभोग के कारण विवाह के दूसरे पक्षकार को भी हो सकती है तो ऐसी परिस्थिति में विधि किसी व्यक्ति के प्राणों के लिए खतरा नहीं हो सकती तथा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है तथा विवाह को बचाए रखते हुए विवाह का दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद प्राप्त कर सकता है ।
संन्यासी हो जाना यदि विवाह का कोई पक्ष कार सन्यासी हो जाता है तथा संसार को त्याग देता है व धार्मिक प्रवज्या धारण कर लेता है तो ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन करके न्यायिक पृथक्करण/ विवाह विच्छेद हेतु डिक्री पारित करवा सकता है ।
7 वर्ष तक लापता रहना यदि विवाह का कोई पक्षकार 7 वर्ष तक लापता रहता है तथा पति या पत्नी का परित्याग करके भाग जाता है या किसी कारण से उसका कोई ठिकाना या पता मालूम नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में विवाह का व्यथित पक्ष न्यायालय के समक्ष न्यायिक पृथक्करण /विवाह विच्छेद हेतु डिक्री की मांग कर सकता है ।
संक्षिप्त में निम्न प्रकार है- 1. यदि कोई पक्षकार जारता करता है या दूसरे पक्षकार के साथ क्रूरताएँ की गयी हो या
2. ) विवाह के बाद कम से कम 2 साल तक अर्जीदार को अभिव्यक्त रखा है
3.) यदि दूसरा पक्षकार धर्म बदलकर गैर हिन्दू हो गया हो या
4.) कोई पक्षकार इस तरह मानसिक विकार से पीड़ित हो कि इलाज सम्भव न हो या दूसरा पक्षकार गम्भीर यौन रोग से पीड़ित हो या
5.) दूसरा पक्षकार संसार का परित्याग कर दिया हो या
6.) दूसरा पक्षकार सात साल या अधिक समय से लापता हो ।
केवल पत्नी को तलाक लेने का आधार धारा[13(2 )]
निम्नलिखित आधार पर पत्नी तलाक ले सकेगी 1. जब विवाह के समय उसकी कोई अन्य पत्नी जीवित हो या
2. उसका पति विवाह के अनुष्ठान से बलात्कार गुदा मैथुन , पशुगमन का दोषी पाया गया है या 3. बिक्री भरण पोषण की प्राप्त हो और एक साल या उससे अधिक समय से सहवास न किया हो या
4. यदि महिला का विवाह 15 साल आयु प्राप्त करने के पहले हुआ था तो वह 15 साल के बाद और 18 साल के पहले विवाह का निराकरण करा सकती है ।
विवाह विच्छेद की कार्यवाहियों में वैकल्पिक अनुतोष धारा 13 (क) विवाह विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में उस दशा को छोड़कर जहां अर्जी धारा 13 ( 1 ) , (2) , ( 6 ) और ( 7 ) के आधारों से परे है यदि न्यायालय उचित समझाता है तो विवाह उच्छेद के जगह न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर सकेगा ।
धारा 13 ख के अनुसार पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद कराया जा सकता है यदि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हैं अब एक साथ नहीं रह सकते इस बात पर सहमत हैं तो विवाह विघटित कर दिया जायेगा । धारा 14 के अनुसार विवाह भंग की कोई भी याचिका विवाह होने के वर्ष के भीतर नहीं दायर की जा सकती है लेकिन उच्च न्यायालय कुछ विशेष परिस्थितियों में समाधान हो जाने पर इसकी इजाजत दे सकता है ।
धारा 15 के अनुसार तलाक प्राप्त व्यक्ति पुनः विवाह कर सकते हैं का प्रावधान दिया गया है यदि तलाक हो गया हो और अपील का कोई आधार ना हो या अपील का अधिकार हो लेकिन समय समाप्त हो गया हो या अपील खारिज कर दी गई हो तब विवाह के पक्षकार पुनर्विवाह कर सकेंगे ।
धारा 16 के अनुसार शून्य-करणीय विवाह की संताने वैध होती है चाहे बच्चे का जन्म विवाह विधि ( संशोधन ) । अधिनियम 1976 के प्रारंभ से पूर्व हुआ हो या पश्चात हुआ हो उसकी धर्मज संतान मानी जाती है ।
धारा 17 के अनुसार विवाह की तारीख से किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित था या थी तो ऐसा कोई भी विवाह शून्य होगा और आईपीसी की धारा 494 व 495 उस व्यक्ति पर लागू होगी।
धारा 18 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो की धारा 5 ( iii ) , ( iv ) च ( v ) में उल्लेखित शतों में है और को धारा 5 ( iii ) उल्लंघन करके विवाह करता है तो उसे 2 वर्ष की कारावास या जुर्माने से जो लाख का हो सकेगा या दोनों से जाएगा ।
यदि वह धारा 5 ( iv ) व ( V ) का उल्लंघन करता है तो उसे 1 माह की सजा या 1000 जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा।