शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

जिलाधिकारी (DM) और पुलिस अधीक्षक (SP) के बीच कार्यक्षेत्र और प्राधिकरण के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए संविधान, विधिक प्रावधान और प्रशासनिक ढांचे का विश्लेषण आवश्यक है। 


 1. जिलाधिकारी (DM) की भूमिका और अधिकार:


संवैधानिक और कानूनी आधार:

- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256 और 257 के तहत, राज्य सरकार को प्रशासन के संचालन का अधिकार है, और जिलाधिकारी को राज्य सरकार का प्रतिनिधि माना जाता है।

- भारतीय दंड संहिता (IPC), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC), और अन्य सरकारी अधिनियमों में जिलाधिकारी की महत्वपूर्ण भूमिका को परिभाषित किया गया है। विशेष रूप से, CrPC की धारा 20(1) के तहत जिलाधिकारी को जिले में कानून व्यवस्था और प्रशासनिक नियंत्रण के लिए नियुक्त किया जाता है।

- राजस्व प्रशासन में जिलाधिकारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भूमि अधिनियमों और कर वसूली संबंधी मामलों में जिलाधिकारी का अधिकार सर्वोच्च होता है।


कार्यक्षेत्र:

- कानून और व्यवस्था: धारा 144 CrPC के तहत जिलाधिकारी को जिले में सार्वजनिक शांति और व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार प्राप्त है। वह जिले में आपातकालीन स्थिति में निषेधाज्ञा जारी कर सकते हैं।


- विकास परियोजनाएं: जिले में विकास कार्यों के समन्वय और उनकी प्रगति की निगरानी जिलाधिकारी की जिम्मेदारी होती है।

- राजस्व अधिकारी के रूप में जिलाधिकारी भूमि, संपत्ति विवादों का निपटारा करता है और सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है।


 2. पुलिस अधीक्षक (SP) की भूमिका और अधिकार:


संवैधानिक और कानूनी आधार:

- भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के तहत SP को जिले में पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी दी जाती है।

- CrPC की धारा 36 के अनुसार, SP अपने जिले में अपराधों की रोकथाम और जांच का प्रमुख अधिकारी होता है।

- SP के अधिकार राज्य पुलिस मैन्युअल के अनुसार संचालित होते हैं, जो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित होते हैं।


 कार्यक्षेत्र:

- अपराधों की रोकथाम और जांच: SP जिले में अपराधों की रोकथाम, जांच और अपराधियों की गिरफ्तारी सुनिश्चित करता है।

- पुलिस बल का नेतृत्व: SP जिले के पुलिस बल का नेतृत्व करता है और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस बल की तैनाती सुनिश्चित करता है।

- कानून-व्यवस्था: SP जिले में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिलाधिकारी के सहयोग से कार्य करता है। हालाँकि, कुछ मामलों में पुलिस अधीक्षक को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की शक्ति भी होती है, विशेष रूप से जब तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता होती है।


 3. DM और SP के बीच संबंध:

- CrPC की धारा 129-131 के तहत DM और SP को भीड़ नियंत्रण और हिंसा के मामलों में संयुक्त रूप से कार्य करना होता है। इसमें DM का अधिकार सर्वोच्च माना जाता है क्योंकि वह प्रशासनिक प्रमुख होता है।

- धारा 144 CrPC के तहत जिलाधिकारी कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस बल की मदद मांग सकता है। SP को इस आदेश का पालन करना अनिवार्य होता है।

- पुलिस अधीक्षक (SP) पुलिस विभाग का प्रमुख है, लेकिन प्रशासनिक नियंत्रण जिलाधिकारी के पास होता है। कुछ मामलों में, SP को अपने निर्णय DM के साथ समन्वय करके लेने होते हैं, खासकर जब कानून और व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है. 



4. कौन सर्वोच्च है?

- जिलाधिकारी को जिले में सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी माना जाता है। CrPC की धारा 129 और 144 के तहत वह कानून-व्यवस्था से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकारी होता है।

- पुलिस अधीक्षक कानून-व्यवस्था और पुलिसिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन वह प्रशासनिक दृष्टिकोण से जिलाधिकारी के अधीन होता है।


 निष्कर्ष:

जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक दोनों ही जिले में कानून-व्यवस्था और प्रशासन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं। कानूनी और प्रशासनिक ढांचे के अनुसार, जिलाधिकारी का प्राधिकार सर्वोच्च होता है, जबकि SP पुलिस बल का नेतृत्व करता है और अपराधों की रोकथाम और जांच सुनिश्चित करता है।

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

up tenancy act 2021

 उ.प्र. नगरीय परिसर किरायेदारी विनियमन अधिनियम, 2021(अधिनियम संख्या 16/2021)

अधिनियमित तिथि - 24 अगस्त 2021
प्रवर्तन तिथि - 11 जनवरी 2021
 अध्याय -7
कुल धाराएं - 46
अनुसूची - 2


Question - अधिनियम(1972) 2021की प्रकृति और विशेषताएं और उद्देश्य :-


1. यह अधिनियम नए स्वरूप में स्थाई प्रकृति का है।
2. इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कोई कार्रवाई नियत प्राधिकारी के समक्ष दाखिल की जाएगी, न कि सिविल न्यायालय के।
3. इस अधिनियम के प्रावधानों के अध्ययन विनिर्दिष्ट आधारों पर बेदखली के लिए आवेदन किराया प्राधिकारी को किया जाएगा। 

विशेषताएं :-
1.किरायेदारों और भू-स्वामी को किराया प्राधिकरण को सूचित करना होता है जब वे किरायेदारी करार को निष्पादित करते हैं। यदि एक पक्ष सूचित करने में विफल रहता है, तो दूसरा पक्ष एक महीने के बाद किराया प्राधिकरण को सूचित कर सकता है ताकि वह किराए के प्राधिकरण के साथ समझौते के रिकॉर्ड को स्थापित करने में मदद करे।
2. किरायेदारी करार के तहत प्रभार हैं जो सुरक्षा जमा का भुगतान नियमित किया गया है। पहले, सुरक्षा जमाराशि(secuirty deposit) स्वरूप 2-6 माह का किराया जमा कराने का प्रावधान था । नए अधिनियम के अनुसार आवासीय परिसर के लिए सुरक्षा जमाराशि (secuirty deposit) दो महीने के किराये से अधिक नहीं। गैर-आवासीय परिसर के लिए इसे 6 महीने का किराया प्रतिभूति के रूप में जमा कराया जा सकता है ।

3.यदि किरायेदार, किराये करार की समाप्ति के बाद किरायेदारों को खाली करने में विफल रहते हैं, तो पार्टियों को नई शर्तों पर पट्टे का विस्तार या नवीनीकृत करने का विकल्प दिया गया है या यदि किरायेदार पट्टे को नवीनीकृत करने में विफल रहता है, तो मकान मालिक को किराए के अधिकार से संपर्क करने और निष्कासन की तलाश करने का अधिकार है।

4. यह अधिनियम एक सुरक्षा जाल देता है और घर खरीदारों का विश्वास बढ़ाता है, जो किराये की आय को ध्यान में रखते हुए अचल संपत्ति में निवेश करते हैं।

5. भू-स्वामी, बिजली और पानी जैसी आवश्यक आपूर्ति में कटौती करते थे जब किरायेदार किराए का भुगतान करने में असमर्थ थे। अब यह नहीं किया जा सकता है। यदि भू-स्वामी ऐसा करता है, तो किरायेदार तुरंत अंतरिम निर्देशों के लिए किराया प्राधिकरण से संपर्क कर सकता है और अधिकारी ऐसी आवश्यक सेवाओं की तत्काल बहाली का आदेश दे सकते हैं।

6. आवासीय संपत्ति के मामले में, वार्षिक किराया 5% से अधिक नहीं बढ़ सकता है और गैर-आवासीय क्षेत्रों के लिए वार्षिक किराया 7% से अधिक नहीं बढ़ सकता है। 

7. अधिनियम किरायेदारों को एक ढाल प्रदान करता है क्योंकि वे उपबंधों के अतिरिक्त अन्य किसी भी तरह से बेदखल नहीं किए जा सकते। और भू-स्वामी के अन्य उपबंधों के अधीन नहीं होंगे।

8. यदि किसी मामले में, भू-स्वामी किराए को अनुपातहीन स्तर तक बढ़ाने की कोशिश करता है, किरायेदारों को अधिनियम की धारा 10 के तहत किराया प्राधिकरण से संपर्क कर सकते हैं और फिर किराया प्राधिकरण नए किराये का निर्धारण करेगा जो बाजार दर के साथ सराहनीय होगा। 

9. किराएदारी करार को और करार का लिखित में होना अधिनियम में अनिवार्य कर दिया गया है। 

10. किरायेदारी से संबंधित मामलों के निस्तारण के लिए अधिनियम में किराया प्राधिकरण(धारा - 30)और अधिकरण(धारा - 32) में व्यवस्था की गयी है। 


उद्देश्य:-
परिसर की किरायेदारी को विनियमित करने, भू-स्वामियों तथा किरायेदारों के हितों को संरक्षित करने और विवादों के समाधान हेतु त्वरित न्याय निर्णयन प्रणाली का उपबन्ध करने और उससे सम्बन्धित या आनुषंगिक मामलों का उपबन्ध करने हेतु किराया प्राधिकरण और किराया अधिकरण की स्थापना करने के लिये दिनांक 31 मार्च, 2021 के पश्चात् भी पूर्वोक्त अध्यादेश के उपबन्धों को प्रवृत्त रखने के लिये एक नयी किरायेदारी विधि लाये जाने का विनिश्चय किया गया।
 


Question - मानक किराया निर्धारण और किराया पुनरीक्षण (Determination of standard rent and rent revision )


मानक किराया - मानक किराया की कोई परिभाषा इस नये अधिनियम में नहीं दी गयी है ;परन्तु up urban building (rent regulation, control and eviction) Act, 1972 की धारा 3 (ट) मानक किराया" , धारा 6, 8 और 10 के प्रावधानों के अधीन, का अर्थ है-

नंबर (i) पुराने अधिनियम द्वारा शासित भवन के मामले में और इस अधिनियम के प्रारंभ के समय किराए पर दिया गया-

(ए) जहां इस तरह के प्रारंभ के साथ-साथ एक उचित वार्षिक किराया [जो इस अधिनियम में वही अर्थ है जो पुराने अधिनियम की धारा 2 (एफ) में है, अनुसूची में पुन: प्रस्तुत किया गया है] दोनों के लिए देय एक सहमत किराया है। सहमत किराया, या उचित वार्षिक किराया प्लस उस पर 25 प्रतिशत, जो भी अधिक हो;

(बी) जहां कोई सहमत किराया नहीं है, लेकिन एक उचित वार्षिक किराया है, उचित किराया प्लस 25 प्रतिशत;

(सी) जहां न तो सहमत किराया है और न ही उचित वार्षिक किराया, धारा 9 के तहत निर्धारित किराया;

(ii) किसी अन्य मामले में, उस समय के लिए मूल्यांकित किराया मूल्य, और निर्धारण की अनुपस्थिति में, धारा 9 के तहत निर्धारित किराया;

सामान्य शब्दों में कहें तो मानक किराया से तात्पर्य ऐसे किराये राशि से है जो पक्षकारों के मध्य सभी उचित मूल्यांकन के उपरान्त, नैसर्गिक उपबंधों के अनुरूप युक्तियुक्त होना चाहिए।


मानक किराया निर्धारण प्रक्रिया -  

मानक किराया निर्धारण के संदर्भ में प्रत्यक्ष रूप से इस अधिनियम में कुछ भी नहीं कहा गया है, परन्तु किराया पुनरीक्षण में ऐसी ही प्रक्रिया का उपबंध किया गया है। नये अधिनियम में मानक किराया निर्धारण के उपबंध न होकर किराया पुनरीक्षण के उपबंध दिए गए हैं, इनका उपयोग किसी विवाद स्तिथि के निस्तारण के लिए किराया प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा। 
 
up urban building (rent regulation, control and eviction) 1972 की धारा 9 के अनुसार मानक किराये का निर्धारण :- 
                             अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत मानक किराए के अवधारण पर प्रकाश डाला गया है इस धारा का प्रयोजन जिला मजिस्ट्रेट को मानक किराए के अवधारण के लिए सशक्त करना है। इस धारा में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जब जिला मजिस्ट्रेट के सम्मुख कोई आवेदन इस संबंध में प्रस्तुत किया जाता है वह उस पर भली प्रकार विचार करता है और ऐसा विचार करने के पश्चात अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। 

मानक किराया भी निश्चित करते समय जिला मजिस्ट्रेट को निम्न बातों पर भली प्रकार विचार करना पड़ता है। 

1. इस अधिनियम के प्रवृत्त होने के दिनांक या किराए पर उठाने के दिनांक जो भी बाद वाले के ठीक पहले भवन और उसके स्थल का बाजार मूल्य;
2. भवन के निर्माण, उसकी सुरक्षा और मरम्मत संबंधी लागत आदि;
3. उक्त दिनांक के पहले उसी भवन की भाँति अन्य भवन की प्रचलित कीमत;
4. भवन में विद्यमान सुख सुविधा और;
5. कोई अन्य सुसंगत तथ्य। 

उपरोक्त बातों पर विचार करते हुए जिला मजिस्ट्रेट साधारणतया उक्त दिनांक को भवन के बाजार मूल्य के 10% प्रतिवर्ष को उसका मानक किराया समझेगा और मासिक मानक किराया आकलित वार्षिक मानक किराया के 12वें भाग के बराबर होगा। 



जिला मजिस्ट्रेट जब अपना निष्कर्ष उपरोक्त रूप में प्रस्तुत कर देता है तो उसका निष्कर्ष अपील के परिणाम के अधीन रहते हुए अंतिम होगा। 
यह एक सामान्य ज्ञान की बात है कि किसी शहरी भवन की बाजार कीमत 1 वर्ष से दूसरे वर्ष बढ़ ही जाता है परिणामतः भवन का स्वामी किराए की राशि में वृद्धि की बात करता है। 
शब्द "अवधारण" इस बात पर बल देता है कि जिला मजिस्ट्रेट को मानक राशि का विनिश्चय धारा 9 की उपधारा 2 मे वर्णित परिस्थितियों के अधीन करना पड़ता है। इस निमित्त अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करने के पूर्व जिला मजिस्ट्रेट को मामले के तथ्यों परिस्थितियों पर भली प्रकार विचार करना पड़ता है, इस विषय में जिला मजिस्ट्रेट को भवन के बाजार मूल्य को भी ध्यान में रखना पड़ता है। 
जिला मजिस्ट्रेट को अपना विवेक प्रयोग करते समय, मानक किराये को अभिनिश्चित करते समय निम्न बातों पर ध्यान रखना पड़ता है। 
  I. निर्माण में आयी लागत
 II. भवन की देखभाल की लागत 
III. भवन की मरम्मत की लागत


किराया पुनरीक्षण और वाद की स्थिति में किराया पुनरीक्षण 

किराया पुनरीक्षण - भूस्वामी तथा किरायेदार के बीच किराये का पुनरीक्षण, किरायेदारी करार के अनुसार होगा। धारा 9(1)
जहां किरायेदारी के आरंभ के बाद , भूस्वामी कार्य आरंभ होने के पूर्व किरायेदार के साथ लिखित में करार कर चुका है और किरायेदार द्वारा कब्जा किए गए परिसर में सुधार, जोड़ या संरचनात्मक परिवर्तन करने के लिए खर्चा कर चुका है, जो धारा 15 के अधीन कार्यान्वित की जाने वाली मरम्मत को सम्मिलित नहीं करता है तो भूस्वामी परिसर का किराया उतनी रकम से बढ़ा सकेगा जो भूस्वामी और किरायेदार के बीच सहमत हुई हो, और किराये में ऐसी वृद्धि ऐसे कार्य के पूर्ण होने के एक माह के बाद प्रभावी होगी। धारा 9(2)


इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व लिखित करार के अधीन किराए पर दिया गया हो तो अधिनियम के प्रारंभ होने के दिनांक से आगे के 2 वर्षो की अवधि के लिए निम्नलिखित तरीकों से पुनरीक्षित(निर्धारित) किए जाने के योग्य होगा। धारा 9(3)

क. जहां परिसर दिनांक 15/07/1972 के पूर्व किराए पर दिया गया लोग इसे 15/07/1972 से किराए पर समझा जाएगा। 

ख. जहां परिसर को दिनांक 15/07/1972 को या उसके पश्चात किराए पर दिया गया हो वह किराया पुनरीक्षित किए जाने का दिनांक किराएदारी प्रारंभ होने के दिनांक के 1 वर्ष के बाद का होगा। 

उपरोक्त मामलें में संदेय (भुगतान योग्य) किराये की दर आवासीय संपत्ति के मामले में, वार्षिक किराया 5% से अधिक नहीं बढ़ सकता है और गैर-आवासीय क्षेत्रों के लिए वार्षिक किराया 7% से अधिक नहीं बढ़ सकता है। यह वृद्धि, चक्रवृद्धि रूप में होगी। 

परन्तु यह कि उपरोल्लिखित किसी भी बात के होते हुए भी पूर्वोक्त उपबंध में उपदर्शित सूत्र के अनुसार संदेय पुनरीक्षित किराया इस अधिनियम के प्रारंभ होने के दिनांक से निम्न अनुसार संदेय होगा-
 क. पहले वर्ष के लिए इस प्रकार गणना किए गए किराया का आधा
ख. दूसरे वर्ष के लिए इस प्रकार गणना की गयी संपूर्ण किराया राशि

धारा 3(1) के प्रावधानों के होते हुए भी जिसमें कोई निर्दिष्ट परिसर() किसी किराएदार को किराए पर दिया गया हो ऐसे परिसर का भू-स्वामी भी धारा 9(3) के उपबंधों के अनुसार किराया पुनरीक्षण का हकदार होगा और इस अधिनियम के सुसंगत प्रावधान ऐसे मामले में लागू होंगे। धारा 9(4)

इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले से प्रारम्भ किराएदारी के मामले में भूस्वामी किराएदार को लिखित रूप में सूचना देकर धारा 9(3) के अधीन विनिर्दिष्ट रूप से बढ़ी हुई किराया राशि की मांग करेगा। 
इस प्रकार बढ़ा हुआ किराया राशि सूचना प्राप्त से 30 दिन के भीतर संदेय होगा और ऐसी स्थिति में किरायेदार  करार संशोधित समझा जाएगा और बढ़ा हुआ किराया धारा 8 के अनुसार संदेय होगा। 

इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व की अवधि के लिए पूर्वोक्त बढ़े हुए किराए का कोई बकाया संदेय या वसूली योग्य नहीं होगा। धारा 9(6)

इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले को करार नहीं था, तो भू-स्वामी और किरायेदार किराए की बढ़ी हुई दर पर किराएदारी करार निष्पादित करने के लिए परस्पर सहमत हो सकते हैं और ऐसा करने में विफल होने पर किराया प्राधिकरण  धारा 10 के उपबंधों के अनुरूप किराया वृद्धि को निर्धारित करेगा। परंतुक धारा 9(5)

विवाद की स्थिति में किराया प्राधिकरण द्वारा किराया पुनरीक्षण-धारा 10

1. किराया - पुनरीक्षण(निर्धारण) के सम्बंध में भूस्वामी और किरायेदार के मध्य किसी विवाद की स्थिति में, किराया प्राधिकरण, भूस्वामी या किरायेदार द्वारा किये गये आवेदन पर, किरायेदार द्वारा संदेय पुनरीक्षित किराये और अन्य प्रभारों का निर्धारण कर सकता है और ऐसा दिनांक भी नियत कर सकता है जिस दिनांक से ऐसा पुनरीक्षित किराया संदेय होगा । 
2. पुनरीक्षित(निर्धारित) किए जाने वाले किराया अवधारण करने में किराया प्राधिकरण किराया पर दिये गये आस-पास के क्षेत्रों में प्रचलित बाजार दर से मार्गदर्शित हो सकता है।
(और निम्न पर भी विचार करेगा - 
A. भवन के निर्माण उसकी सुरक्षा और मरम्मत संबंधित लागत आदि. 
B. उक्त दिनांक के पहले उसी भवन की भांति अन्य भवनों की प्रचलित कीमत
C. भवन में विद्यमान सुख - सुविधा 
D. कोई अन्य सुसंगत तथ्य।) 
3. इस धारा के अधीन एक बार कोई अवधारण कर दिये जाने के पश्चात् नये सिरे से अवधारण हेतु कोई आवेदन, उक्त अवधारण के पश्चात् एक वर्ष की अवधि तक नहीं किया जायेगा। 
4. किराया प्राधिकरण, किराया पुनरीक्षण(निर्धारण) की कार्यवाहियों के दौरान अनन्तिम किराया अवधारित कर सकता है जो अन्तिम अवधारण के अध्यधीन होगा ।




Question :अधिनियम किन क्षेत्रों या स्थानों में लागू होगा और किन में नहीं 

अधिनियम 2021, सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में प्रवृत्त होगा। 




सोमवार, 14 नवंबर 2022

lokniti

लोक नीति विश्लेषण

लोकनीति अथवा सार्वजनिक नीति वह नीति है जिसके अनुसार राज्य के प्रशासनिक कार्यपालक अपना कार्य करते हैं। बहुत से विचारको का मत है कि लोक प्रशासन, लोकनीति को लागू करने और उसकी पूर्ति करने के लिए लागू की गई गतिविधियों का योग है।
जन समस्याओं एवं मार्गों के समाधान के लिए सरकार द्वारा जो नीति बनाई जाती है वे लोक नीतियां कहलाती है।
1937 में में लोकनीति को हावर्ड विश्वविद्यालय के लोक प्रशासन स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल किया गया
लोक नीति की शुरुआत के बारे में डेनियम मैक्कुल का कहना है कि लोकनीति के अध्ययन की शुरुआत 1922 में हुई
भारत में औपचारिक रूप से 1894 में बनी राष्ट्रीय वन नीति पहली लोकनीति मानी जाती है
लोकनीति की प्रकृति ( Nature of democracy)
लोक नीति की प्रकृति मुख्यतः सरकारी है लेकिन गैर सरकारी संस्थाएं लोक नीति निर्माण ( Public policy making) की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।

लोकनीति वैधानिक व बाध्यकारी होती है यह वास्तव में सरकार द्वारा किया जाने वाला कार्य है।

लोकनीति के प्रकार

मूलभूत और बुनियादी नीतियां
नियंत्रक नीतियां
वितरण संबंधी नीतियां
पूंजीकरण नीतियां
क्षेत्रक नीतियां
नीति निर्माण की प्रक्रिया

नीति निर्माण में निम्नलिखित प्रक्रियाए शामिल होती हैं यह प्रक्रिया विभिन्न सरकारी अंगों तथा गैर सरकारी माध्यमों के से संपन्न होती हैं जो निम्नलिखित हैं
राजनीतिक कार्यपालिका (Political executive)
प्रशासनिक तंत्र( Administrative system)
विधायिका( Legislature)
न्यायपालिका( Judiciary)

दबाव एवं हित समूह
राजनीतिक दल(Political party)
लोकमत(Public opinion)
जनसंचार माध्यम(Mass media)
सामाजिक आंदोलन(Social movement)
अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां( International agencies)

नीति निर्माण में प्रशासन तंत्र की भूमिका तीन क्रियाओं में बांटी जाती है
सूचना देना
परामर्श देना
विश्लेषण करना

लोकनीति का क्रियान्वयन
लोक नीति के क्रियान्वयन के अध्ययन की शुरुआत हेराल्ड लासवेल ने अपने ग्रंथ मैं सबसे पहले 1956 में की थी।

लोकनीति क्रियान्वयन के चरण इसके अंतर्गत तीन चरण हैं।

पहला चरण 1970 के दशक में लोक नीति के क्रियान्वयन पक्ष को महत्वपूर्ण मानते हुए केस स्टडी पर बल दिया
दूसरा चरण 1980 के दशक से प्रारंभ हुआ इसके तहत लोकनीति क्रियान्वयन में पद पर सोपानिक क्रियान्वन पक्ष पर अधिक आनुभविक दृष्टि से अध्ययन पर बल दिया जाने लगा
तीसरा चरण यह चरण 1990 के दशक से माना जाता है इस चरण में लोकनीति के क्रियान्वयन को अधिक वैज्ञानिक बनाने पर बल दिया गया है यह पीढ़ी लोकनीति क्रियान्वयन की जटिलता को समझने और उसके समाधान हेतु सिद्धांतों का समर्थन करती है
लोकनीति क्रियान्वयन में बाधाएं
सामान्य नीतियाँ तो बहुत अच्छी होती है लेकिन उसका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं हो पाता है
नीति क्रियान्वयन में प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित है

त्रुटिपूर्ण नीति
क्रियान्वयन अधिकारियों का जमीनी हकीकत में अपरिचित
विशिष्ट वर्गों की अवरोधक भूमिका
भ्रष्टाचार
जागरूकता का अभाव
आंतरिक सुरक्षा की समस्या
बुनियादी ढांचे का अभाव
लोक नीति के उद्देश्य एवं निर्णय
उद्देश्य नीतियों के लक्ष्य होते हैं।यह वांछित परिणाम है जिसे समाज या सरकार प्राप्त करने की कोशिश करती है।
निर्णय चयन की एक क्रिया है ये दो प्रकार की हो सकती है

1 कार्यक्रमबद्ध
2 गैर कार्यक्रमबद्ध

लोक नीति का मूल्यांकन
मूल्यांकन के अंतर्गत यह पता लगाया जाता है कि जिन व्यक्तियों क्षेत्रों समूहों के लिए नीति निर्माण और क्रियान्वयन किया गया था क्रियान्वयन के बाद उन लोगों को लाभ हुआ या नहीं और जो उद्देश्य व लक्ष्य निर्धारित किए गए थे वह उनकी प्राप्ति में किस हद तक सफल हुए हैं

भारत में लोक नीति मूल्यांकन की कुछ महत्वपूर्ण संस्थाएं निम्नलिखित हैं

नीति आयोग
संसदीय समिति
नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक
राजनीतिक दल
मीडिया गैर
सरकारी संगठन
अनुसंधान संस्थान
विश्वविद्यालय

लोकनीति मूल्यांकन के तीन प्रकार होते हैं

1 प्रशासनिक मूल्यांकन
2 न्यायिक मूल्यांकन
3 राजनीतिक मूल्यांकन

डेनियल मूल्यांकन की तीन विधियां बताइए है
प्रक्रिया मूल्यांकन
प्रभाव मूल्यांकन
समग्र मूल्यांकन

शनिवार, 26 मार्च 2022

घरेलू हिंसा (Domestic Violence)

        घरेलू हिंसा (Domestic violence)


 

घरेलू हिंसा क्या है?

घरेलू हिंसा वो दुर्व्यवहार, अपमान या हिंसा है जो किसी महिला के साथ घर की चार-दीवारी के भीतर हो. हिंसा परिवार द्वारा की जा सकती है और यह शारीरिक, मानसिक, मौखिक, भावनात्मक, यौन या आर्थिक रूप में हो सकती है.

घरेलू हिंसा की शिकायत किसके खिलाफ की जा सकती हैं? 

घरेलू हिंसा की शिकायत आम तौर पर "परिवार" के खिलाफ दर्ज की जाती है, यानी उस व्यक्ति के खिलाफ जिसका पीड़ित व्यक्ति से कोई घरेलू संबंध हो. पीड़िता का इस व्यक्ति से खून का संबंध (जैसे माता-पिता या भाई-बहन), विवाह का संबंध (जैसे पति, ससुराल), अपने साथी से (लिव-इन रिलेशनशिप), या दूर की रिश्तेदारी का कोई संबंध हो सकता है. हिंसा या दुर्व्यवहार करने वाला पुरुष या महिला हो सकता है.

पीड़ित व्यक्ति घरेलू हिंसा की शिकायत कैसे दर्ज कर सकता है?

पीड़ित या पीड़ित की ओर से कोई व्यक्ति शिकायत दर्ज करा सकता है. घरेलू हिंसा का शिकार व्यक्ति नीचे दिए गए विकल्पों में कोई चुन सकता है.

पुलिस थाना- पुलिस एक एफ़आईआर या घरेलू घटना की रिपोर्ट (DIR) दर्ज करेगी या पीड़ित को क्षेत्र में मौजूद प्रोटेक्शन ऑफ़िसर के पास जाने का निर्देश देगी.
प्रोटेक्शन ऑफ़िसर- एक सुरक्षा अधिकारी है जो ज़िले में होने वाले घरेलू हिंसा के मामलों के लिए, संपर्क का पहला सूत्र है. प्रोटेक्शन ऑफ़िसर पीड़ित को डीआईआर दर्ज करने और अदालत में मामला दर्ज करने में मदद करेगा. 

राष्ट्रीय महिला आयोग- राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) को घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न से जुड़ी शिकायतों की जांच करने का अधिकार है. राष्ट्रीय महिला आयोग का काम स्थानीय पुलिस की अगुवाई में होने वाली जांच पर निगरानी रखना और उसमें तेजी लाना है. आयोग उन मामलों में पीड़ित को सलाह देने का काम भी करता है जहां पीड़ित और उसके साथ दुर्व्यवहार करने वाला अदालत जाए बिना अपने विवाद को सुलझाने का मन रखते हैं. इसके अलावा आयोग का काम जांच समिति का गठन, स्पॉट पूछताछ, गवाहों और चश्मदीदों से पूछताछ, सबूत इकट्ठा करना और अपनी जांच के आधार पर शिकायत के बारे में रिपोर्ट तैयार करना है.

प्रोटेक्शन ऑफ़िसर कौन है?

प्रोटेक्शन ऑफ़िसर, घरेलू हिंसा पीड़ित व्यक्ति और व्यवस्था यानी पुलिस, वकील और अदालतों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी हैं. उनकी भूमिका शिकायत दर्ज करने, वकीलों से जुड़ने और अदालत में मामला दर्ज करने की प्रक्रिया  में पीड़ितों की मदद करना है. जरूरत पड़ने पर वे पीड़ित की  मेडिकल जांच करवाने में भी मदद करते हैं. ये अधिकारी प्रत्येक ज़िले में राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं. अधिकतर, प्रोटेक्शन ऑफ़िसर महिलाएं ही होती हैं. 

घरेलू घटना की रिपोर्ट (DIR) क्या है? 

घरेलू घटना की रिपोर्ट (DIR) घरेलू हिंसा की शिकायत मिलने पर बनाई जाने वाली रिपोर्ट है. रिपोर्ट प्रोटेक्शन ऑफ़िसर या ऐसी किसी एनजीओ द्वारा बनाई जाती है जो महिलाओं की मदद करती हैं. इसमें शामिल होता है:

पीड़ित का नाम:
उम्र:
आरोपियों के बारे में जानकारी:
हिंसा की घटना (या घटनाओं) का ब्यौरा:  

पीड़ित(Victim) के क्या अधिकार हैं?

पुलिस अधिकारी, प्रोटेक्शन ऑफ़िसर, एनजीओ या मजिस्ट्रेट, जिनके पास शिकायत दर्ज करवाई गई है, प्रभावित महिला को उन सभी राहतों के बारे में सूचित करते हैं जिनका वह लाभ उठा सकती है और जो कानून के तहत उसके अधिकार हैं. पीड़ित के पास प्रोटेक्शन ऑर्डर (संरक्षण आदेश), कस्टडी का आदेश, आर्थिक सहायता, सुरक्षित निवास में रहने का अधिकार और मेडिकल सुविधाओं तक पहुंच का अधिकार है. सुनवाई के शुरुआती चरण में अदालत इन चीज़ों से संबंधित आदेश दे सकती है.   

राहत पाने के लिए पीड़ित व्यक्ति कोर्ट में कैसे अपील कर सकता है?

पीड़ित के लिए वकील की सहायता से, मजिस्ट्रेट के सामने एप्लीकेशन दायर करना ज़रूरी है. इसके ज़रिए पीड़ित को अदालत को बताना होगा कि वो अदालत से किस तरह की राहत प्राप्त करना चाहते हैं, जैसे सुरक्षा या संरक्षण संबंधी आदेश, निवास से जुड़ा आदेश, आर्थिक सहायता का निर्देश, मुआवज़े या हर्जाने का आदेश और अंतरिम आदेश. पीड़ित व्यक्ति वकील की सेवाएं ले सकते हैं या अपने प्रोटेक्शन ऑफ़िसर से मदद ले सकते हैं, या किसी एनजीओ से कानूनी सहायता के लिए कह सकते हैं.

अदालत किस तरह के संरक्षण आदेश पारित कर सकती है?

आमतौर पर मजिस्ट्रेट जिस तरह के संरक्षण आदेश पारित कर सकते हैं उनमें शामिल हैं:

घरेलू हिंसा दोहराई न जाए इसे लेकर निषेधाज्ञा का आदेश. यह आदेश शिकायतकर्ता की अपील में लिखी बातों के आधार पर पारित किया जाता है.

आरोपी को पीड़िता के स्कूल/कॉलेज या दफ्तर जाने से रोकने संबंधी आदेश.
आरोपी द्वारा पीड़िता को दफ्तर जाने से रोकने पर आरोपी के खिलाफ आदेश.
आरोपी को स्कूल, कॉलेज या उस जगह पर जाने से रोकने संबंधी आदेश जहां पीड़ित के बच्चे जाते हैं.  
आरोपी अगर पीड़ित को स्कूल या कॉलेज जाने से रोकते हैं तो उनके खिलाफ आदेश.
आपोरी द्वारा पीड़ित से किसी भी तरह संपर्क करने पर रोक संबंधी आदेश.
आरोपी अगर पीड़ित व्यक्ति की संपत्ति को अलग करने की कोशिश करते हैं तो उन्हें रोकने संबंधी आदेश.  
आरोपी द्वारा संयुक्त बैंक लॉकर या खातों को संचालित करने पर रोक और पीड़ित को ये अधिकार सौंपने संबंधी आदेश.
पीड़ित के रिश्तेदारों या उस पर आश्रित किसी व्यक्ति से हिंसा किए जाने पर रोक लगाने संबंधी आदेश.
पीड़ित व्यक्ति, आरोपी या दुर्व्यवहार कर रहे व्यक्ति से तत्काल सुरक्षा की मांग कर सकते हैं. मजिस्ट्रेट अस्थायी रूप से, लेकिन एक तय समय सीमा के लिए, सुरक्षा प्रदान करेगा जब तक वह यह महसूस नहीं करता कि परिस्थितियों में बदलाव के चलते अब इस तरह के आदेश की जरूरत नहीं.

सुरक्षित निवास को लेकर पीड़ित व्यक्ति अदालत से किस तरह के आदेश पा सकता है?
अदालत के आदेश आम तौर पर आरोपी को नीचे दिए गए काम करने से रोक सकते हैं: 

साझा घर से पीड़ित को बेदखल करना या बाहर निकालना.  
साझा घर के उस हिस्से में आवाजाही करना जिसमें पीड़ित रहते हैं. 
साझा घर को अलग करना/उसे बेचना या पीड़ित के उसमें आने-जाने पर रोक लगाना.
साझा घर पर उनके हक को खत्म करना
पीड़ित व्यक्ति को उसके व्यक्तिगत सामान तक पहुंचने का अधिकार देने संबंधी आदेश.
आरोपी को आदेश जारी करना कि वो या तो साझा घर से खुद को दूर कर लें या वैकल्पिक निवास उपलब्ध करवाए या फिर उसके लिए किराए का भुगतान करें.  


पीड़ित किस तरह की आर्थिक या वित्तीय राहत का दावा कर सकते हैं?

आर्थित राहत का दावा वास्तविक खर्च या एकमुश्त भुगतान के रूप में किया जा सकता है. इसके अलावा, आर्थित राहत पहले हुए नुकसान की भरपाई और भविष्य के ख़र्चों को पूरा करने के लिए दी सकती है. पीड़ित को हुई मानसिक पीड़ा के लिए भी मुआवज़े के रूप में आर्थिक राहत दी जा सकती है. आर्थिक राहत को निम्न रूप में समझा जा सकता है:

कमाई का नुकसान
मेडिकल या इलाज संबंधी खर्च
पीड़ित व्यक्ति से संपत्ति छीनने  या उसे नष्ट करने को लेकर हुआ नुकसान 
कोई अन्य नुकसान या शारीरिक या मानसिक चोट 
भोजन, कपड़े, दवाओं और अन्य बुनियादी ज़रूरतों से जुड़े ख़र्चों के भुगतान के लिए भी निर्देश दिए जा सकते हैं, जैसे- स्कूल की फ़ीस और उससे जुड़े खर्च; घरेलू खर्च आदि. इन ख़र्चों का हिसाब महीने के आधार पर किया जाता है.  
मजिस्ट्रेट के सामने अपील दाखिल करने के समय पीड़ित को क्या खुलासे करने होंगे?
पीड़ित को अपने और आरोपियों के बीच भारतीय दंड संहिता, आईपीसी, हिंदू विवाह अधिनियम,  हिंदू दत्तक भरण-पोषण अधिनियम के तहत दर्ज पहले के किसी मामले की जानकारी देनी होगी. पीड़िता को यह भी बताना होगा कि रखरखाव को लेकर क्या कोई आवेदन पहले से दायर किया गया है और क्या कोई अंतरिम रखरखाव दिया गया है.

क्या शिकायत दर्ज करने पर आरोपी या दुर्व्यवहार कर रहे व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाएगा?

यह संभव नहीं है कि शिकायत दर्ज करने पर दुर्व्यवहार कर रहे व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाए. घरेलू हिंसा से जुड़े क़ानूनों के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा के मामलों में गिरफ्तारी को लेकर दिशा निर्देश जारी किए हैं. उन मामलों में तुरंत गिरफ्तारी की जा सकती है जहां पीड़ित को गंभीर चोटें आई हों.

वित्तीय या आर्थिक दुर्व्यवहार क्या है?

वित्तीय या आर्थिक दुर्व्यवहार तब होता है जब आरोपी पीड़ित व्यक्ति की पैसे से जुड़ी स्वतंत्रता को सीमित करता है. यह तब हो सकता है जब: 

  दुर्व्यवहार करने वाला व्यक्ति आपके पैसे को नियंत्रित करता है.  
  दुर्व्यवहार करने वाला व्यक्ति आपको पैसे नहीं देता या आपकी ज़रूरत के मुताबिक पैसा नहीं देता.
  दुर्व्यवहार करने वाला व्यक्ति आपको नौकरी करने से रोकता है. 
  दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति ने आपकी शादी से पहले या उसके दौरान मिले सोने, गहनों या दूसरी महंगी चीज़ों को आपसे छीन लिया है.

क्या मुझे अपने हक में अदालत से तत्काल कोई आदेश मिल सकता है?

हां,  आप अपने साथ दुर्व्यवहार कर रहे लोगों के खिलाफ तुरंत सुरक्षा की मांग कर सकती हैं. मजिस्ट्रेट से आपको अस्थायी लेकिन तय समय सीमा के लिए सुरक्षा मिल सकती है, यानी जब तक वो यह महसूस नहीं करते कि हालात में बदलाव के चलते अब इस तरह के आदेश की ज़रूरत नहीं है. 
स्थिति के आधार पर मजिस्ट्रेट, आपको आश्रय दिलवाने, कस्टडी और आर्थिक राहत से जुड़े आदेश भी पारित कर सकता है. वो आपकी सुरक्षा के लिए रीस्ट्रेनिंग ऑर्डर यानी निरोधक आदेश भी पारित कर सकता है.

मुझे मेरे साझा घर से बाहर निकाला जा रहा है. मैं क्या कर सकती हूँ?
अगर आप अपने साथी या अपने साथ दुर्व्यवहार करने वाले लोगों के साथ एक ही घर में सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हैं,  तो आप अदालत से रेज़िडेंस ऑर्डर यानी निवास आदेश की अपील कर सकती हैं.
 निवास आदेश आपकी इस तरह मदद कर सकता है:

आरोपियों द्वारा आपको घर से निकाले जाने पर रोक लगा सकता है
आरोपियों को घर छोड़ने और अगले आदेश तक घर में कदम न रखने का आदेश दे सकता है.
आरोपियों को आदेश दे सकता है कि वो आपके लिए किसी दूसरी रहने की जगह का इंतज़ाम करें
साझे घर पर आपका या आपके साथ दुर्व्यवहार करने वालों का अधिकार न होने के बावजूद  अदालत ऊपर दिए गए मामलों में आदेश दे सकती है.

मैं अपने साथी के साथ रहती हूँ और मुझे डर है कि मैं शारीरिक और यौन शोषण का शिकार हो रही हूं. क्या मैं घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कर सकती हूं?

यदि आप एक ही छत के नीचे अपने साथी के साथ रह रही हैं, तो यह एक साझा घर है. भले ही आप और आपका साथी शादीशुदा न हों, लेकिन यह एक घरेलू रिश्ता माना जाता है. आपके पास अपने प्रेमी/साथी के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करने का कानूनी अधिकार है. हालाँकि, अदालत को इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि आपका संबंध "विवाह की प्रकृति" में है क्योंकि भारत में लिव-इन संबंध पूरी तरह से कानून के दायरे में नहीं आते. इसकी शर्तें निम्न हैं:   

रिश्ते की अवधि;
सार्वजनिक जगहों पर साथ आना-जाना;
घरेलू इंतज़ाम;
उम्र और वैवाहिक स्थिति;
सेक्स संबंध;
आर्थिक रूप से और दूसरे संसाधनों के ज़रिए एक साथ जुड़ा होना;
पार्टियाँ आयोजित करना, और;
बच्चे
क्या उस क्षेत्र में शिकायत दर्ज की जा सकती है जहां पीड़ित नहीं रहती है?

हां, घटना की जगह की परवाह किए बिना किसी भी इलाके में शिकायत दर्ज की जा सकती है. इसे ज़ीरो एफ़आईआर कहा जाता है. ज़ीरो एफ़आईआर का मतलब है कि मामला पुलिस थाने के अधिकार क्षेत्र में न आने के बावजूद सीरियल नंबर "शून्य यानी ज़ीरो" के साथ एक एफ़आईआर दर्ज की जा सकती है. बाद में इसे संबंधित इलाके के पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित किया जा सकता है यानी जहां घटना हुई या पीड़िता रहती है. जांच केवल अधिकार क्षेत्र की पुलिस ही करेगी. ऐसा किया गया है ताकि एफ़आईआर दर्ज करने में लगने वाले समय को कम किया जा सके.

उदाहरण के लिए: यदि आपके पति आपको जयपुर में अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं और आप अब दिल्ली में अपने माता-पिता के साथ हैं, तो आप दिल्ली में एफ़आईआर दर्ज कर सकती हैं. हालांकि, जांच जयपुर में पुलिस द्वारा की जाएगी.

क्या घरेलू हिंसा की शिकायत ऑनलाइन दर्ज की जा सकती?

राष्ट्रीय महिला आयोग के ऑनलाइन पोर्टल पर पीड़ित घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कर सकते हैं.

वकील की सेवाएं कैसे ली जा सकती हैं?
सरकारी वकील या निजी वकील घरेलू हिंसा के मामलों को उठा सकते हैं. वो मजिस्ट्रेट के सामने अपील करने में मदद कर सकते हैं और प्रोटेक्शन ऑर्डर व आर्थिक राहत पाने में आपकी मदद कर सकते हैं.

भारत में घरेलू हिंसा पर कौन से कानून लागू होते हैं?

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 इस मामले में लागू एक कानून है, जो खासतौर पर घरेलू हिंसा को संबोधित करता है. इसके अलावा भारतीय दंण्ड संहिता(Indian Penal code) , 1860 की धारा 498-ए, जो क्रूरता को संबोधित करती है, घरेलू हिंसा के मामलों से जुड़ी है.


मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं घरेलू हिंसा की शिकार हूँ?
अगर आपको लगता है कि आपके जीवन साथी या परिवार के वो सदस्य जिनके साथ आप एक ही घर में रहती हैं आपके साथ हिंसक, डराने वाला या अपमान जनक व्यवहार कर रहे हैं, तो ये घरेलू हिंसा के संकेत हैं.

घरेलू हिंसा की घटना पीड़ित को भला-बुरा कहने या उसकी आलोचना करने के साथ शुरू हो सकती है यानी आपको मौखिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है. पीड़ित के साथ शारीरिक हिंसा भी की जा सकती है जिसमें- खींचतान, हाथापाई, धक्का देने, थप्पड़ मारने जैसी हरकतें शामिल हैं. आपका जीवन साथी आपको और आपके काम को नियंत्रित करने की कोशिश कर सकता है. वो आपको धमकाने, शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाने, या आपको आर्थिक रूप से नियंत्रित कर सकते हैं. ऐसे में आप भावनात्मक रूप से बिखरा हुआ महसूस कर सकती हैं. आप आत्मविश्वास की कमी, आत्मसम्मान की कमी या खुद को दोषी महसूस कर सकती हैं.

अक्सर घटना के बाद आरोपी "गलती" के लिए माफी माँगता है और फिर उसी तरह का व्यवहार करना जारी रखता है.

यदि मुझे घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ रहा है, तो मुझे क्या करना चाहिए?

घरेलू हिंसा के शिकार लोग अक्सर बोलने से डरते हैं. उन्हें डर होता कि मामले को सामने लाने से स्थिति और बिगड़ सकती है, यहां तक कि उनके बच्चों को भी नुकसान पहुंच सकता है. नीचे दिए कुछ तरीकों से आप मदद पा सकती हैं:

आपके इलाके में मौजूद गैर-सरकारी संगठन यानी एनजीओ, आश्रय या सलाह देने का काम कर सकते हैं. अगर आप मामले को रिपोर्ट करने का फैसला लेती हैं एनजीओ आपको सभी कानूनी विकल्पों के बारे में जानकारी देकर आपका मार्गदर्शन कर सकती हैं. 
घरेलू हिंसा की घटना की रिपोर्ट पुलिस स्टेशन या राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट पर करें. यदि आप पुलिस स्टेशन नहीं जा सकतीं, तो 100 नंबर या आयोग की हेल्पलाइन डायल करें. 
भारत सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन के दौरान, महिला आयोग ने रिपोर्ट करने के लिए एक व्हाट्सएप नंबर भी जारी किया है. इन नंबरों की जानकारी के लिए हमारे हेल्पलाइन सेक्शन को देखें.
अपने क्षेत्र में प्रोटेक्शन ऑफ़िसर से संपर्क करें जो आपको कानूनी प्रक्रिया, मेडिकल सहायता और आश्रय आदि के बारे में बताएँगे.

शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

संविधान की प्रस्तावना और उसमें निहित शब्दों के अर्थ।

प्रत्येक संविधान का अपना दर्शन होता है। हमारे संविधान के पीछे जो दर्शन है उसके लिए हमे पंडित जवाहर लाल नेहरू के उस ऐतिहासिक उद्देश्य - संकल्प की ओर दृष्टिपात करना होगा जो संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को अंगीकार किया था, और जिससे आगे सभी चरणों में संविधान को रूप देने में प्रेरणा मिली है।

42 वें संविधान संशोधन अधिनियम , 1976 द्वारा इसमें समाजवादी , पंथनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों को सम्मिलित किया गया । 

यथा संशोधित उद्देश्य - संकल्प (प्रस्तावना) इस प्रकार हैं :-

                        प्रस्तावना
" हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व संपन्न, समाजवादी पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता
प्रतिष्ठा और अवसर की समता 
प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में 
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली 
बंधुता बढ़ाने के लिये 
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई . (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।" 

 
पण्डित नेहरू के शब्दों में उपर्युक्त संकल्प "संकल्प से कुछ अधिक है यह एक घोषणा है, एक दृढ़ निश्चय है, एक प्रतिज्ञा है, एक वचन है और हम सभी के लिए एक समर्पण है। उक्त संकल्प मे जिन आदर्शों को रखा गया है वे संविधान की उद्देश्यिका मे दिखाई पड़ते है। 1976 मे यथा संशोधित इस उद्देश्यिका मे संविधान के ध्येय और उसके उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन है।"
उद्देश्यिका (प्रस्तावना) से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं। 
1. प्रस्तावना यह बताती है कि संविधान के प्राधिकार का स्त्रोत क्या है? 
2. प्रस्तावना यह भी बताती है कि संविधान किन उद्देश्यों को संवर्धित या प्राप्त करना चाहता है। 

 प्रस्तावना में उल्लेखित मुख्य शब्दों के अर्थ : 
हम भारत के लोग 
इसका तात्पर्य यह है कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है तथा भारत के लोग ही सर्वोच्च संप्रभु है , अतः भारतीय जनता को जो अधिकार मिले हैं वही संविधान का आधार है अर्थात् दूसरे शब्दों में भारतीय संविधान भारतीय जनता को समर्पित है।  

संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न 
इस शब्द का आशय है कि , भारत ना तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और ना ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है । इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने आंतरिक और बाहरी मामलों का निस्तारण करने के लिए स्वतंत्र हैं । 
भारतीय संविधान भारतीयों (संविधान निर्मात्री सभा) द्वारा बनाया गया है, न कि ब्रिटिश संसद की देन है। इस बात मे यह पूर्ववर्ती भारतीय शासन अधिनियम से भिन्न है। इसे भारत के लोंगो ने एक प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा मे समावेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अधिकथित किया था। यह सभा अपने देश के राजनैतिक भविष्य को अवधारित करने के लिए सक्षम थी। 
गोपालन बनाम मद्रास राज्य, (1950) एस. सी. आर. 88 (198)
बेरुबाड़ी मामला, ए. आई. आर. 1960 एस. सी. 845 (846)

समाजवादी 
समाजवादी शब्द का आशय यह है कि ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के मुख्य साधनों , पूँजी , जमीन , संपत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य है ।
42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा उद्देश्यिका (प्रस्तावना) me समाजवादी शब्द सम्मिलित करके यह सुनिश्चित किया गया था कि भारतीय राज्य-व्यवस्था का ध्येय समाजवाद है। समाजवाद के ऊंचे आदर्शों को अभिव्यक्त रूप से दर्शित करने के लिए इसे सम्मिलित किया गया। 
भारतीय संविधान द्वारा परिकल्पित समाजवाद, राज्य के समाजवाद का वह सामन्य ढांचा नहीं है। जिसमें धन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है और प्राइवेट सम्पत्तियों का उत्सादन हो जाता है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था - 
                                "हमने सदैव कहा है कि हमारा समाजवाद अपने ढंग का है। हम उन्हीं क्षेत्रों मे राष्ट्रीयकरण करेंगे जिनमे हम आवश्यकता समझते है केवल राष्ट्रीयकरण, यह हमारा समाजवाद नहीं है।" 
एक्सेलवियर बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1979 एस. सी. पैरा 24
नकारा बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1983 एस. सी. पैरा 33-34

पंथनिरपेक्ष  
पंथनिरपेक्ष राज्य जो सभी धर्मों की स्वतंत्रता प्रत्याभूत करता है। 
' पंथनिरपेक्ष राज्य ' शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेख नहीं किया गया था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि , संविधान के निर्माता ऐसे ही राज्य की स्थापना करने चाहते थे । इसलिए संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 ( धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार ) जोड़े गए । भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता की सभी अवधारणाएँ विद्यमान है अर्थात् हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है । 

लोकतांत्रिक 
शब्द का इस्तेमाल वृहद रूप से किया है , जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है। व्यस्क मताधिकार , समाजिक चुनाव , कानून की सर्वोच्चता , न्यायपालिका की स्वतंत्रता , भेदभाव का अभाव भारतीय राजव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं । 

गणतंत्र 
प्रस्तावना में गणराज्य ' शब्द का उपयोग इस विषय पर प्रकाश डालता है कि दो प्रकार की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं ' वंशागत लोकतंत्र ' तथा ' लोकतंत्रीय गणतंत्र ' में से भारतीय संविधान अंतर्गत लोकतंत्रीय गणतंत्र को अपनाया गया है। गणतंत्र में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिये चुनकर आता है । 

गणतंत्र के अर्थ में दो और बातें शामिल हैं। 
पहली यह कि राजनीतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के हाथ में होने के बजाय लोगों के हाथ में होती हैं । 
दूसरी यह कि किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति । इसलिये हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिये खुला होगा । 

स्वतंत्रता 
यहाँ स्वतंत्रता का तात्पर्य नागरिक स्वतंत्रता से है। स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है । यह व्यक्ति के विकास के लिये अवसर प्रदान करता है।

न्याय 
न्याय का भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेख है , जिसे तीन भिन्न रूपों में देखा जा सकता है सामाजिक न्याय , राजनीतिक न्याय व आर्थिक न्याय ।  
सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि मानव - मानव के बीच जाति , वर्ण के आधार पर भेदभाव न माना जाए और प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हो । 
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन संपदा का केवल कुछ ही हाथों में केंद्रीकृत ना हो जाए ।
राजनीतिक न्याय का अभिप्राय है कि राज्य के अंतर्गत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो , चाहे वह राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का अधिकार । 

समता 
भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की समता प्रदान करती है जिसका अभिप्राय है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने की उपबंध । 
बंधुत्व 
इसका शाब्दिक अर्थ है भाईचारे की भावना प्रस्तावना के अनुसार बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना होगा । पहला व्यक्ति का सम्मान और दूसरा देश की एकता और अखंडता । मौलिक कर्तव्य में भी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है ।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

हिन्दू विधि ( Hindu Law ) : भाग 2 दत्तक ग्रहण (Adoption)

                    दत्तक ग्रहण 

दत्तक ग्रहण की प्रथा हिंदू धर्म की प्राचीनता में सन्निहित है मनुष्य की पुत्र प्राप्ति की स्वाभाविक इच्छा वृद्धावस्था में सहायता आदि भावनाओं ने पुत्र प्राप्ति की आवश्यकता को तीव्र बना दिया था। पितरों को पिंडदान जल दान देने तथा धार्मिक संस्कार को पूरा करने के लिए एवं अपने नाम को कायम रखने के लिए एक व्यक्ति को पुत्र दत्तक ग्रहण में लेना चाहिए यदि वह पुत्र हीन हो ऐसी प्राचीन मान्यता रही है । अर्थात जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपना अपत्य दे देता है तो इस देने के कृत्य को या किसी अन्य की संतान को अपना बनाने के कृत्य को दत्तक कहते हैं । 

वैध दत्तक की आवश्यक शर्तें ( धारा 6 )
इस अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत एक वैध दत्तक की आवश्यकता का उल्लेख किया गया है । इस संबंध में अधिनियम ने महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं जो धारा 6 में इस प्रकार है कोई दत्तक तभी मान्य होगा जबकि दत्तक ग्रहिता व्यक्ति दत्तक ग्रहण करने की आवश्यकता , सामर्थ्य तथा साथ ही साथ अधिकार भी रखता हो , दत्तक देने वाला व्यक्ति ऐसा करने की सामर्थ्य रखता हो , दत्तक ग्रहण में लिया जाने वाला व्यक्ति दत्तक ग्रहण के योग्य हो , दत्तक ग्रहण इस अधिनियम की अन्य शर्तों के अनुकूल हुआ हो । 
कुमार शूरसेन बनाम बिहार राज्य एआईआर 2008 पटना 24 . इस बाद में वादी जो जन्म से मुस्लिम था वह बचपन से ही एक हिंदू द्वारा दत्तक ग्रहण कर लिया गया था अतः न्यायालय ने निर्धारित किया कि हिंदू दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम की धारा 6 के अनुसार एक हिंदू एक हिंदू का ही दत्तक ग्रहण कर सकता है न्यायालय ने दत्तक ग्रहण को अमान्य कर दिया । 
हिंदू पुरुष द्वारा दत्तक ग्रहण करने की सामर्थ्य ( धारा 7 ) 
धारा 7 के अनुसार कोई भी स्वस्थ चित व्यक्ति जो वयस्क है किसी भी पुत्र अथवा पुत्री को दत्तक ग्रहण में ले सकता है । परंतु उसकी पत्नी जीवित है तो जब तक की पत्नी ने पूर्ण तथा अंतिम रूप से संसार को त्याग ना दिया हो अथवा हिंदू न रह गई हो अथवा सक्षम सक्षम क्षेत्राधिकार वाले किसी न्यायालय द्वारा विकृत चित वाली घोषित ना कर दी गई हो तब तक वह अपनी पत्नी की सहमति के बिना दत्तक ग्रहण नहीं करेगा । यदि पति की एक से ज्यादा पत्नियां है तो सबकी सहमति लेना आवश्यक होगा । 
सबरजीत कौर बनाम गुरु मल कौर ए आई आर 2009 एनओसी 889 पंजाब एंड हरियाणा न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि दंपत्ति की कोई संतान ना हो तथा पति ने बिना पत्नी की सहमति से दत्तक लिया है तो वह दत्तक अमान्य हो जाएगा । 
भोलू राम बनाम रामलाल एआईआर 1999 मध्य प्रदेश 198 मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि यदि पत्नी अलग रह रही है अथवा घोर अनैतिक जीवन व्यतीत करती हुई कई अन्य चली गई है और वही रहने लगी है तो उससे पुत्र को दतक में दिए जाने के संबंध में उसकी सहमति की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती । ऐसी स्थिति में यदि उसकी सहमति नहीं ली गई है तो दत्तक ग्रहण अवैध हो जाएगा ।
स्त्रियों के दत्तक ग्रहण करने की सामर्थ्य धारा 8 इस अधिनियम के द्वारा स्त्रियों को भी दत्तक ग्रहण करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है जिसमें उन्हें अब मृत पति से प्राधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार का प्राधिकार पति से प्राप्त करना पूर्व विधि में आवश्यक था अधिनियम में एक अविवाहित स्त्री भी दत्तक ग्रहण कर सकती है। 
अधिनियम की धारा 8 में स्त्री द्वारा दत्तक ग्रहण करने के लिए निम्नलिखित बातों को आवश्यक बताया गया है 
1. वह स्वस्थ चित्त की हो , 
2. वह वयस्क हो 
3 . वह विवाहिता ना हो अथवा यदि वह विवाहित है तो उसने विवाह भंग कर दिया हो अथवा
4. उसका पति मर चुका हो अथवा   
5. वह पूर्ण तथा अंतिम रूप से संसार त्याग चुका हो अथवा 
6. उसका पति हिंदू नहीं रह गया हो अथवा 
7. उसका पति किसी सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा विकृत मस्तिष्क का घोषित किया जा चुका हो। 

अतः स्त्रियों का दत्तक ग्रहण संबंधी अधिकार सीमित है । यह अधिकार अविवाहित अवस्था में अथवा विधवा होने की दशा में अथवा कुछ शर्तों के साथ विवाहिता होने की स्थिति में प्रयोग किया जा सकता है । 
स्त्री का दत्तक ग्रहण उसके पति के लिए होता है या व्यक्तिगत होता है ? 
 जब दत्तक ग्रहण स्त्री द्वारा विवाहिता जीवन की स्थिति में किया जाता है तो वह सदैव पति के लिए होता है क्योंकि उस दशा में स्त्री द्वारा दत्तक ग्रहण तब किया जाता है जब पति धारा 8 के खंड स में दी गई किसी योग्यता से निरयोग्य हो चुका है । शून्य विवाह के अंतर्गत चूंकि विवाह प्रारंभ से शून्य होता है पत्नी को यह अधिकार है कि वह पति के प्राधिकार के बिना दत्तक ग्रहण कर सकती है । ऐसे विवाह में उसकी स्थिति एक अविवाहिता स्त्री जैसी होती है । यद्यपि विवाह शून्य होता फिर भी यदि उसके कोई पुत्र उस विवाह से उत्पन्न हो गया हो तो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 के अनुसार वह संतान वैध होगी और ऐसे संतान की उपस्थिति में वह संतानहीन नहीं समझी जाएगी अतः दत्तक ग्रहण भी नहीं कर सकती है। 
मालती राव चौधरी बनाम सुधींद्रनाथ मजूमदार ए आई आर 2007 कोलकाता न्यायालय ने निर्धारित किया कि अविवाहित पुरुष दत्तक ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र होता है लेकिन विवाहित पुरुष द्वारा दत्तक ग्रहण में पत्नी की सहमति अनिवार्य होती है । 
श्रीमती विजयलक्ष्मा बनाम बीटी शंकर एआईआर 2001 सुप्रीम कोर्ट 1424 न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि संतानहींन पति की दो पत्नियां हैं वहां दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र होकर भी दत्तक ग्रहण कर सकती हैं अतः वह एक दूसरे से सहमति लेना आवश्यक नहीं होता है । 

वे व्यक्ति जो दत्तक दे सकते हैं ( धारा 9 ) इस अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत उन व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है जो दत्तक ग्रहण में बच्चे को देने के लिए सक्षम होते हैं वे इस प्रकार हैं 
1. बच्चे के माता - पिता या संरक्षक के अतिरिक्त कोई व्यक्ति बालक को दत्तक ग्रहण में देने के लिए समर्थ नहीं है । 
2. इस अधिनियम में 2010 में संशोधन के पश्चात व्यवस्था की गई है कि पिता या माता को यदि वह जीवित है पुत्र या पुत्री का दतक में देने का समान अधिकार होगा परंतु ऐसे अधिकार का प्रयोग उनमें से किसी के द्वारा अन्य की सहमति के सिवाय नहीं कर सकते । जब तक उनमें से एक ने पूर्ण और अंतिम रूप से संसार का त्याग नहीं कर दिया हो अथवा हिंदू न रह गया हो अथवा सक्षम अधिकारता वाले किसी न्यायालय ने उसके बारे में यह घोषित कर दिया हो कि वह विकृतचित् का है ।
3. धारा 9 ( 4 ) के अनुसार जबकि माता पिता दोनों की मृत्यु हो चुकी है अथवा वह संसार त्याग चुके हो अथवा संतान का परित्याग कर चुके हो अथवा किसी सक्षम न्यायालय द्वारा उनके विषय में यह घोषित कर दिया गया है कि वे वितरित मस्तिष्क के हैं अथवा जहां संतान के माता - पिता का पता ना चलता हो तो बालक का संरक्षक चाहे वह इच्छा पत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक हो अथवा न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक को न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा लेकर बालक को दत्तक ग्रहण में दे सकेगा । 
4. धारा 9 ( 4 ) के अनुसार स्थिति को न्यायालय में विचार में लेगा की अपत्य की आयु और समझने की शक्ति कितनी है उसके बाद ही दत्तक देने की अनुमति देगा । 
धुवराज जैन बनाम सूरज बाई ए आई आर 1973 राजस्थान 7 न्यायालय ने निर्धारित किया कि एक सौतेली माता अपने सौतेले पुत्र या पुत्री को दत्तक ग्रहण में नहीं दे सकती क्योंकि उसे इस बात का सामर्थ्य नहीं प्राप्त है । केवल नैसर्गिक माता - पिता ही दत्तक ग्रहण में बच्चे को देने का अधिकार एवं सामर्थ्य रखते हैं । व्यक्ति जो दत्तक लिए जा सकते हैं , 

धारा ( 10 ) कोई व्यक्ति व्यक्ति दत्तक ग्रहण में लिए जाने योग्य नहीं होगा जब तक कि वह निम्नलिखित शर्तें पूरी नहीं कर देता है। वह हिंदू हो , - इसके पूर्व कभी भी वह दत्तक ग्रहण ना रहा हो , वह विवाहित अथवा विवाहिता ना हो जब तक इसके विपरीत कोई प्रथा अथवा रुठि पक्षकारों के बीच प्रचलित ना हो जिसके अनुसार विवाहिता को दत्तक ग्रहण में लिया जाता है 15 वर्ष की आयु पूरी करनी होगी लेकिन रुदि व प्रथा लागू नहीं होती है । 
बालकृष्ण भट्ट बनाम सदाशिव घरट ए आई आर 1971 न्यायालय ने निर्धारित किया कि प्रथाओं के प्रमाणित किए जाने पर ही धारा 10 ( 4 ) के प्रावधान लागू किया जाएगा और 15 वर्ष से अधिक आयु के बालक का दत्तक ग्रहण वैध माना जाएगा । 
वीरान माहेश्वरी बनाम गिरीश चंद्र 1986 इलाहाबाद 54 न्यायालय निर्धारित किया कि 15 वर्ष से अधिक का दत्तक होता है तो उसे प्रथाओं का प्रमाण देना पड़ेगा चाहे भले ही दूसरे पक्षकार ने उसकी वैधता को चुनौती ना दिया हो । भरण पोषण ( Maintenance ) हिंदू विधि के अनुसार परिवार का सदस्य पूर्वज की संपत्ति में या तो भागीदार होता है या संपत्ति की आय पोषण अधिकार है । 

हिंदू दत्तक तथा पोषण अधिनियम 1956 के अंतर्गत निम्नलिखित व्यक्ति भरण पोषण के अधिकारी बनाए गए हैं 
1. पत्नी 
2. विधवा पुत्रवधू 
3. बच्चे तथा वृद्ध माता - पिता पत्नी का भरण पोषण धारा 18 ) 

पत्नी को दो अधिकार दिए गए हैं भरण पोषण का अधिकार तथा पृथक निवास करने का अधिकार अधिनियम की धारा 18 ( 1 ) अनुसार पत्नी अधिनियम के पहले या बाद में विवाहित हो अपने जीवन काल में अपने पति से भरण पोषण प्राप्त करने की हकदार होगी । धारा 18 ( 2 ) के अनुसार पत्नी पृथक निवास करके भी भरण पोषण का दावा कर सकती है जब वह पृथक निवास करती है उसके निम्नलिखित आधार होने चाहिए 
1. यदि पति - पत्नी के अभित्याग का अपराधी है अर्थात व युक्तियुक्त कारण के बिना या बिना पत्नी की राय के या उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे त्यागता है या इच्छापूर्वक उसकी अवहेलना करता है । 
2 . यदि पति ने इस प्रकार की निर्दयता का व्यवहार किया है जिससे उसकी पत्नी के मस्तिष्क में या युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न हो जाए कि उसका पति के साथ रहना हानिकर या घातक है। 3 . यदि वह कोई दूसरी जीवित पत्नी रखता हो 4. यदि वह कोई उपपत्नी रखता है क्या उसके साथ अन्य स्थान पर रहता है । 
5 . यदि वह हिंदू न रह गया हो । 
6 कोई अन्य कारण हो जो उसके पृथक निवास को उचित ठहराता हो। 
इस अधिनियम की धारा 18 ( 3 ) के अनुसार यदि कोई पत्नी शील भ्रष्ट है या वह कोई धर्म बदलकर गैर हिंदू हो जाती है या बिना कारण से पति से अलग रहती है तो उस स्थिति में वह भरण - पोषण का दावा नहीं कर सकेगी । 

रॉबिन कुमार चंद्रा बनाम शिखा चंद्रा 2000 न्यायालय ने निर्धारित किया कि पत्नी को भरण - पोषण का अधिकार उसी समय उत्पन्न हो जाता है जब वह न्यायालय में कोई वाद प्रस्तुत करती है। 
नरेंद्र पाल कौर चावला बनाम मनजीत सिंह चावला एआईआर 2008 दिल्ली न्यायालय ने निर्धारित किया कि कोई व्यक्ति पहली पत्नी के रहते हुए किसी दूसरी स्त्री से विवाह यह छुपाकर करता है कि वह अविवाहित हैं वहां दूसरी पत्नी भरण पोषण की हकदार होगी । 

नरेंद्र अप्पा भटकर बनाम नीलम्मा ए आई आर 2013 न्यायालय ने निर्धारित किया कि सीआरपीसी की धारा 125 मे आपसी सुलह समझौता के आधार पर वाद का निस्तारण हो गया हो और पति पत्नी अलग रह रहे हो वहां पत्नी का अधिकार इस अधिनियम के अंतर्गत समाप्त नहीं हो जाता है । 
विधवा पुत्रवधू का भरण पोषण ( धारा 19 ) इस अधिनियम की धारा 19 के अनुसार हिंदू पत्नी इस अधिनियम के पूर्व या पश्चात विवाहित हो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने श्वसुर भरण - पोषण प्राप्त करने की हकदार होगी । श्वसुर का भरण पोषण करने का दायित्व व्यक्तिगत दायित्व नहीं है बल्कि वह कुटुंब की संपत्ति से भरण - पोषण करने के लिए उत्तरदाई है लेकिन जब वह विधवा पत्नी स्वयं की संपत्ति से अपना भरण पोषण प्राप्त कर सकती हैं या पति की संपत्ति से या पिता की संपत्ति से या माता की संपत्ति से या पुत्र या पुत्री की संपत्ति से अपना भरण - पोषण कर रही है तो उस स्थिति में वह श्वसुर से भरण - पोषण नहीं प्राप्त कर सकती है । 
निम्नलिखित आधार विधवा पुत्रवधू का भरण पोषण का अधिकार संपहत हो 
1. यदि वह पुनः विवाह कर लेती है , 
2. यदि वह गैर हिंदू हो जाती है , 
3. श्वसुर के पास भरण - पोषण के लिए कोई साधन नहीं है , 
4. विधवा पुत्रवधू ने सहदायिकी की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त कर लिया हो । 
कनईलाल प्रमाणिक बनाम श्रीमती पुष्पा रानी ए आई आर 1976 कोलकाता 172 निर्धारित हुआ की धारा 19 ( 2 ) केवल मिताक्षरा विधि पर लागू होती है दायभाग पर नहीं क्योंकि वहां संपत्ति पिता के रहते पुत्र नहीं प्राप्त कर सकता है । 
बलबीर कौर बनाम हरिंदर कौर ए आई आर 2003 पंजाब 174
न्यायालय ने निर्धारित किया की पुत्रवधू श्वसुर के स्वयं अर्जित संपति से भरण - पोषण पाने की हकदार हैं । 
संतान तथा वृद्ध माता - पिता का भरण पोषण ( धारा 20 ) इस अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत कोई हिंदू अपने जीवन काल में अपने धर्मज अधर्मज संतानों और वृद्ध माता पिता का भरण पोषण करने के लिए बाध्य है । भरण पोषण का हकदार बच्चा अवयस्क होना चाहिए इसके अंतर्गत पौत्र पौत्री सम्मिलित नहीं है यदि कोई पुत्री जो अविवाहित हो अपना भरण - पोषण करने में असमर्थ हो वहां वह व्यक्ति भरण पोषण के लिए उत्तरदाई होगा । नोट माता के अंतर्गत निसंतान सौतेली माता भी आती है । लक्ष्मी बनाम कृष्ण 1968 इस वाद में पिता अपनी दूसरी पत्नी के साथ रह रहा था और पुत्री अपनी माता के साथ वहां न्यायालय ने निर्धारित किया कि पुत्री भरण पोषण की हकदार है । भरण पोषण की धनराशि ( धारा 23 ) हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 23 ने पोषण की धनराशि निर्धारित करने के लिए न्यायालय को सर्वोपरि अधिकार दे रखा हैं । पोषण की धनराशि न्यायालय के अपने विवेक के आधार पर निश्चित करेगा तथा न्यायालय धनराशि निश्चित करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगा, 
1.पत्नी बच्चे या वृद्ध माता - पिता के भरण - पोषण की राशि निर्धारित करते समय
A. पक्षकारों की अवस्था तथा हैसियत 
B. दावेदार की युक्तियुक्त मांग 
C. यदि दावेदार अलग रह रहा हो तो क्या उसका वैसा करना न्यायोचित है । 
D. दावेदार की संपत्ति का मूल्य जिसके अंतर्गत उस संपत्ति से आय दावेदार की स्वयं की आय तथा किसी अन्य रूप से प्राप्त आय सम्मिलित हैं। E. दावेदारों की संख्या । 

2. किसी आश्रित के भरण - पोषण की धनराशि निर्धारित करने के समय न्यायालय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगा, 
A. मृतक का ऋण देने के बाद उसकी संपत्ति का मूल्य , 
B. आश्रित के विषय में मृतक द्वारा इच्छा पत्र में कहीं गई बात , 
C. दोनों के संबंध की दूरी , 
D. आश्रित की युक्ति युक्त आवश्यकता , 
E. मृतक का आश्रित से पूर्व संबंध , 
F. आश्रित की संपत्ति का मूल्य तथा उसकी आय उसका स्वयं का उपार्जन किसी अन्य प्रकार : से आय , 
G. इस अधिनियम के अंतर्गत आश्रित पोषण के हकदार की संख्या 
मगन भाई छोटू भाई बना मनीबेन ए आई आर 1985 गुजरात 18 न्यायालय ने निर्धारित किया कि मामले के तथ्यों के अनुसार पत्नी को पति की आय में एक तिहाई अथवा कुछ परिस्थितियों में आधा भाग दिया जाना चाहिए । यदि पति की आय अधिक है और उसको अपने को छोड़कर अन्य किसी का भरण - पोषण नहीं करना है उसकी संतान पत्नी के साथ रह रही हो तो उस स्थिति में पत्नी को पति की पूरी आय का आधा हिस्सा दे दिया जाना चाहिए । 

परिस्थितियों के अनुसार राशि में परिवर्तन ( धारा 25 ) यदि भरण पोषण की धनराशि में परिवर्तन करना न्याय संगत हो तो वहां परिवर्तन किया जा सकता है । 
मदनलाल बनाम श्रीमती सुमन ए आई आर 2002 पंजाब एंड हरियाणा 321 न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि पत्नी भरण पोषण की राशि ले रही हो वहां उसे कोई संतान उत्पन्न हो जाती तो राशि में पुनः बदलाव किया जाएगा और उसे प्रदान किया जाएगा । 
शिप्रा भट्टाचार्य बनाम डॉक्टर अमरेश भट्टाचार्य 2009
न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि पति की आय में वृद्धि होती है तो पत्नी भी बढ़ी हुई राशि लेने की हकदार होगी । 
बंशीधर मोहंती बनाम श्रीमती ज्योत्सना रानी मोहंती 2002 उड़ीसा भरण पोषण की धनराशि घटाने या बढ़ाने के लिए एक पृथक बाद लाना पड़ता है लेकिन जहां पत्नी ने अपने भरण पोषण पाने के लिए हिंदू भरण पोषण अधिनियम की धारा के अंतर्गत भरण पोषण प्राप्त किया है वहां ऐसी स्त्री अपने भरण - पोषण को बढ़ाने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत कोई वाद नहीं ला सकती है । 

भरण पोषण अधिकार पर संपत्ति के हस्तांतरण का प्रभाव- जहां आश्रित भरण - पोषण का दावा करता है और संपत्ति को अंतरित कर दी जाती है तो उस स्थिति में संपत्ति जिसको अंतरित की गई है उस संपत्ति से भरण - पोषण दिया जाएगा लेकिन यदि उसने संपत्ति खरीदी हो और वह उस समय नहीं जानता था कि उससे भरण - पोषण दिया जाना है तो उस स्थिति में वह भरण पोषण देने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। 

जिलाधिकारी (DM) और पुलिस अधीक्षक (SP) के बीच कार्यक्षेत्र और प्राधिकरण के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए संविधान, विधिक प्रावधान और प्रशासनि...